Friday, December 31, 2010

नया साल आया है

दुल्हन सा बैचैन मन

जागा सारी रात
नए वर्ष के द्वार पर
आ पहुंची बारात । 

शहनाई पर 'भैरवी' 
छेड़े कोई राग 
या फूलों पर तितलियाँ 
लेकर उड़ीं पराग । 

इतनी सी सौगात ला 
आने वाले साल
पीने को पानी मिले 
सस्ता आटा , दाल । 

भाषा, मजहब, प्रान्त के 
झगडे और संघर्ष 
तू ही आकर दूर कर 
मेरे नूतन वर्ष । 

ये बूंदें हैं ओस की 
या मोती का थाल 
आओ देखें गेंहू के 
खेतों में नव साल । 

वो सरसों के खेत में
सपने, खुशियाँ, हर्ष
अपने घर और गाँव भी 
आया है नव वर्ष । 

नई भोर की रश्मियों 
रुको हमारे देश 
अंधियारों से आखिरी 
जंग अभी है शेष । 

Friday, October 1, 2010

रोना न आया

बीज समाया धरती में
अंकुर चाहे देखूं भोर
खींच ली निर्दयी ने
मेरे जीवन की डोर
सुगबुगाना भी न आया ।

सृष्टि के उपवन में
सुकोमल एक कली खिली
कोपल थी अपनी धुन में
किया विलग वो धूल मिली
कुनमुनाना भी न आया ।

कुछ और बरस बीते
उम्र थी देखू सपनों को
ऊँची उड़ान जगत जीते
निर्मोही क़तर गया पंखों को
पलक झपकाना भी न आया ।

मेरे हिस्से का आसमान
मेरी इच्छा बलवती पले
था किसी और का बागवान
सरका दी धरती पाँव तले
जरा डगमगाना भी न आया ।

आहट भेजी जब वसंत ने
फिर से मन बौराया
सपने बुने बावरे नैनों ने
उनका चटक रंग चुराया
फिर भी मुझे रोना न आया .

Wednesday, September 29, 2010

दीपशिखा

जीवन में है गति प्रखर
गतिमान हो बढते जाना है
टेढ़े रस्ते कुछ कठिन डगर
लक्ष्य लक्ष्य को पाना है ।

हमराही मिलते हैं कितने
कुछ दूर चले फिर छूट गए
अनजान सफ़र ठांव इतने
क्यों ठहरे सपने टूट गए ।

मैं चला अकेला अलबेला
संग तुम्हारी याद लिए
तपती मुश्किल राहों पर
शीतल सी तुम्हारी छवि लिए ।

अँधेरे और असमतल पथ पर
सहज हो मैं बढ़ जाता हूँ
दीपशिखा सी आगे चलती
सम्मोहित सा पीछे आता हूँ ।

साथ बिताये दुर्लभ पल
सौगात मेरी है पूँजी प्रिय
संजीवनी सी बहती अविरल
जीऊँ सरस तुम संग प्रिय ।

वामांगी बन रहो मेरी
नहीं विधाता ने चाहा
बनकर अखंड ज्योति मेरी
प्रकाशित मन में मैंने चाहा ।

Monday, September 27, 2010

विस्मय

सृष्टि की जननी बनकर
है सृष्टा का भेस धरा
वृहत वसुंधरा से बढ़कर
रचयिता ने शरण स्वर्ग भरा ।

माँ कहलाई महिमा पाई
ममता दुलार लुटाती हो
देवों ने भी स्तुति गाई
हर रिश्ते से गुरुतर हो ।

सहोदरा सा रूप मनोरम
छवि अपनी कितनी सुखकर
दो बोल स्नेह भरे अनुपम
लाज बचाने आये ईश्वर ।

भरी पड़ी धरती सारी
सीता जैसी सतियों से
अनुसूया और गार्गी तारी
इस जग को असुरों से ।

इतिहास साक्षी है अपना
अवतरित हुईं दुर्गा कितनी
रानी झाँसी सी वीरांगना
मीरा सी जोगन कितनी ।

कनिष्ठा पर गोवर्धन उठाये
कान्हा कितने इतराते हैं
बरसाने वाली उन्हें नचाये
संग लय ताल ठुमकते हैं ।

हर रूप तुम्हारा रहे अनूप
तुम अनुकरणीय पथगामिनी
युग बदला तुम रहीं अनुरूप
अल्पज्ञ जो कहते अनुगामिनी ।

नारी विस्मय रूप तुम्हारा
नमन करे यह जग सारा
भोर मुखर ले दीप्त सहारा
निशा ढले पा मौन पसारा .

Sunday, September 26, 2010

कन्या

कन्या
नहीं मिल रही
का शोर
कानों में पड़ा
मुझे लगा क्या
नवरात्र
शुरू हो गए है ।

इन्हीं दिनों में
होती है
इनकी पूजा
देवी बनाकर
बाकी वर्ष भर
कोई नहीं लेता
इनकी सुध ।

आज भरे है
अखबार
सेलिब्रिटीस की
बेटियों के
गुणगान से
डाटर्स डे है आज ।

खास अवसरों
पर ही होती है
इनकी खोज
बाकी जीवन
तो यों ही
गुमनामी के
अंधेरों में
दम तोड़ देता है ।

अक्सर
शिक्षित माता पिता ही
दिखाई देते है
महिला डाक्टर
से करते विनती
कन्या भूर्ण हत्या के लिए ।

जनसँख्या
में घट रहा है
अनुपात
बेटियों का
चिंताजनक रूप से ।

सरकार
को लानी
पड़ रही हैं
स्कीमें
देने पड़ रहे हैं
प्रलोभन
बेटी बचाओ
इसे भी जीने दो ।

माँ के गर्भ
में आने
से लेकर
शिक्षा कैरियर
और शादी तक
सब निशुल्क ।

फिर भी
नहीं तैयार
कोई पिता
बनने को
पालक पुत्री का ।

Thursday, September 23, 2010

निर्वासन

रामलला
अपनी ही माँ
को "माँ " पुकारने
के लिए
माँगा जा रहा है
तुमसे तुम्हारे
जन्म का प्रमाण ।

कितने डी एन ए टेस्ट
से गुजरोगे
अपने ही घर में
आने के लिए
पार करनी होगी
कितने निर्दोषों के
रक्त की वैतरणी
जिन्हें तुम्हारे नाम पर
चढ़ा दिया गया बलि ।

सूर्यवंशियों के
शौर्य में नहीं है
सूर्य की चमक
शांत सरयू भी
नहीं दे पा रही
कोई साक्ष्य
जहां जल समाधि
ली थी तुमने ।

फैसले की
नंगी कटार
लटकी है
तुम्हारे सिर पर
ठीक उसी तरह
जैसे ली थी तुमने
अग्नि-परीक्षा
सीता की ।

कभी रखने को
पिता का वचन
माँ के
एक इशारे पर
काटा था वनवास
आज फिर
भोगना है तुम्हें
निर्वासन
तय नहीं जिसकी
अवधि ।

लेकिन पुरुषोत्तम
ना तो तब
मानस के ह्रदय से
निर्वासित हुए थे तुम
ना ही
अब हो पाओगे ।

Wednesday, September 22, 2010

आह ! पानी

तूफ़ान उड़ा कर ले गया
मेरे घरौंदे की छत को
जल मग्न कर गया
मेरी आशा और सपनों को .

बेबस देखती मैं रह गई
करूँ क्या कुछ सूझा नहीं
प्रकृति की भ्रकुटि तनी हुई
बचाऊँ क्या कुछ बचा नहीं .

पलायन परोस रहा पानी
नदियों में उफनता हाहाकार
सच लगे कि दुनिया है जानी
देख मेघों का प्रबल प्रहार .

इन्द्रदेव क्यों रुष्ट हुए
पानी पानी कर दिया जगत
तनिक रुको सब पस्त हुए
जन जीवन है हुआ त्रस्त .

यमुना तट पर ठगी खड़ी
चिन्ह न शेष ठिकाने का
तांडव लहरें उठती गिरती
पानी भी सूख गया आँखों का .

Monday, September 20, 2010

विकल्प

तीसों पहर सोच में बीते
सपना कैसे होगा साकार
किया था वादा दिन बीते
कैसे लेगा वह आकार ।

प्रयास समर्थता से बढ़कर
इष्टदेव को साथ लिए
बनूँ मैं उनका अवलंबन
ले हाथों में हाथ लिए ।

लोचन झिलमिल से भर जाए
आकाश सिमट आये आँचल में
धरा भी फूली नहीं समाये
स्फुटित हो नीलकमल मन में ।

देने को अनुपम उपहार
जैसा किसी ने दिया न हो
हर लेने को हर अवसाद
ऐसा किसी ने हरा न हो ।

होते हैं विरले तुम जैसे
औरों की ख़ुशी में जीते हैं
तजकर अपने निज सुख को
बन नीलकंठ विष पीते हैं ।

अतुल्य अनूठे अलग से हो
उपमा मैं तुम्हारी दूं किससे
विकल्प न कोई तुम्हारा हो
छवि मात्र तुम्हारी हो जिसमें ।

Saturday, September 18, 2010

स्वीकार नहीं भीख

छोटे बड़े
अनगिनत
अभावों के बीच
रहना सीख लिया था
मैंने ।

अब नहीं
खलती थी
कोई कमी
नींद भी
आ ही जाती थी
तमाम कमियों के बीच ।

अपनी हालत
पर आती थी
हंसी
जो पहले नहीं आयी कभी
खुद को
जीत लिया था
मैंने ।


अचानक
बहुत सा
अपनापन मिला तो
लगा कुबेर हो गई हूँ मैं
इतना अमोल धन
कहाँ रखूँ
कैसे सम्भालूँ
इसे ओढूं कि बिछाऊँ
मेरा आँचल
न हो जाए
तार तार
इसके बोझ से ।

जानती हूँ
मैं नहीं सुपात्र
नहीं मेरा कोई अधिकार
मन है न
बेईमान हो जाता है
हँसता है
मेरे उसूलों पर
मजाक उडाता है
मेरी नैतिकता पर
चिन्दियाँ बिखेर देता है
मेरे स्वाभिमान और
मेरी अस्मिता की ।

फिर सुनी
एक आवाज़
छोटी सी हंसी के साथ
'कभी पाया है
इतना प्यार
कभी देखी है
इतनी ख़ुशी '
लगा
तुमने दी है
मुझे भीख
अपने प्यार की
स्नेहसिक्त अभिसार की ।

रह लूंगी
तमाम अभावों के बीच
लेकिन
सोच में विकृति से साथ
नहीं है स्वीकार
मुझे
यह भीख ।

देखो
मैं फिर से
हंसने लगी हूँ ।

Friday, September 17, 2010

उर्मिला

निर्वासन था सिर्फ राम का
भोगा क्यों लक्ष्मण ने वनवास
सिया करे निर्वाह धर्म का
उर्मिला जिए विरह का पाश ।


पुरुषोत्तम पूजे जाते राम
सीता एक सती कहलाई
विस्मृत हुआ लक्ष्मण नाम
उर्मिल गाथा गाई गई

मर्यादा के प्रतीक हैं ये
जीवन मूल्यों की है थाती
पुरोधा संस्कारों के ये
है नैतिकता की पाती ।

आज जरुरत एक राम की
बलिहारी जाये पितृ वचन पर
प्रतीक्षा हमें है लाखन की
भेंट चढ़ जाए भाई प्रेम पर ।

सीता सी कोई पतिव्रता
सक्षम हो लाज बचाने में
असुरों का जो विनाश करे
प्रतिमान समाज चलाने में ।

उर्मिला है इन सबसे ऊपर
ऊँचा हैं उसका बलिदान
परित्यक्त जीवन जिया उसी ने
देकर मौन प्रेम प्रतिदान .

Wednesday, September 15, 2010

मन में आस

पूरब में सूरज की लाली
देख प्रियतम हर्षाये
उगते सूर्य की तरुनाई
मन में आस जगाये

सर सर बहती ठंडी हवाएं
तन मन दोनों सिहराए
भोर में करते खग कलरव
धीमा मीठा संगीत सुनाये

आँगन में अनमन सी फिरूँ
पायल की रुनझुन न भाए
अँखियाँ राह पे टंगी हुई
मेरी चूनर सरकी जाये

खड़ी अटारी जिसे निहारूं
वे तो नजर न आये
कहाँ छिपे मनमीत मेरे
दिल का चैन चुराए .

Tuesday, September 14, 2010

रसवंती हिंदी

स्वाद प्रसार बहुत है
रसभाषा रसवंती
ऋतुओं में वासंती है यह
रागों में मधुवंती
भाषाएँ हो चाहे जितनी
यह सबकी हमजोली
स्वागत करती हिंदी सबका
बिखरा कुमकुम रोली .

हिंद की है आत्मा
पहचान हिंदुस्तान की
बनकर लहू है दौड़ती
नब्ज हिंदुस्तान की
राज करती है दिलों पर
हैं लाखों चाहने वाले
खूबसूरत है बयानी
मानने लगे हैं दुनिया वाले .

एकछत्र हो साम्राज्य
सबको रेशम डोर बांधती
जो कुछ संकोच हो कहने में
रसिया सी सब कह जाती
कितनी बोली कितनी भाषा
इतनी सुमधुर कोई और नहीं
कितना भी उन्नत हो जाए
हिंदी जैसी कोई मणि नहीं .

देश के रोम रोम में
अनगिनत भाषा बोली
बड़ी बहन सा व्यवहार
सब भाषा की है सहेली
संस्कृति की पहचान यही
यही है देश की धड़कन
मान रखें सम्मान करें
आओ करे हम इसे नमन

Monday, September 13, 2010

चाँद दूर क्यों

बीत गया पाख अँधियारा
फैला दो विश्व उजियारा
चाँदी के चश्मे से देखो
ये जग है कितना प्यारा ।

चाँद और सूरज दो भाई
करते सृष्टि की अगुवाई
सब पर पहरा देते मौन
कौन जागता सोता कौन ।

चंदा मेरे हमराज तुम्हीं
सखा मेरे सरताज तुम्हीं
बोलो भी क्यों रूठे हो
इतनी दूर जा बैठे हो ।

झरोखे पर आ बैठूं मैं
साँझ न काटे कटती है
कब आओगे निर्मोही
कि गंगा जमुना बहती है ।

पल बीते और दिवस गए
जन्मों तक करूँ अनुराग
नाथ मेरे तक कब पहुंचेगी
इस व्याकुल ह्रदय की पुकार .

चाँद तुम इतनी दूर हो क्यों
क्यों शीतलता में तड़प भरी
पागल प्रेमी के साथ हो क्यों
क्यों प्रेम में इतनी अगन भरी।

Saturday, September 11, 2010

कौन हो तुम

गुलाब के पराग सी
आभा गुलाबी

सूरज के प्रकाश सी
रक्तिम लाली

नदी के प्रवाह सी
चंचल इठलाती

चंदा की चांदनी सी
शीतलता फैलाती

सुवासित रजनीगंधा सी
खुशबू बिखराती

मंद मलय सी
कानों में फुसफुसाती

आहलादित मयूरी सी
देख मेघा नाचती

इन्द्रधनुष सी
रंगों को दुलारती

झीनी दीपशिखा सी
मार्ग को दिखाती

लगती अपनी सी
राह निहारती

भोर की किरण सी
ऊर्जा भर जाती

भावों की सम्मोहना सी
खींचे लिए जाती

बूढी पुजारिन सी
बिन कहे समझ जाती

कौन हो तुम
पहेली बूझी न जाती .

Friday, September 10, 2010

तुम्हारे स्पर्श से

शिशु हूँ मैं
थामकर तुम्हारी उँगलियाँ
चढ़ना चाहता हूँ
जीवन की सीढियां ।

अबोध की तरह
अक्षर बोध कराओ मुझे
ताकि समझ सकूं
दुनिया की समझ ।

एक युवा के
सपनों की तरह
आत्मविश्वास से पूरित
छूना चाहता हूँ आकाश ।

एक पुरुष की तरह
अनुप्रिया बनाना चाहता हूँ
ताकि बाँट सकूं तुमसे
भावों का अतिरेक ।

एक वृद्ध की तरह
स्मरण करना चाहता हूँ
थरथराते हाथों से
ज्यों आराध्य हो तुम ।

एक आसक्त की तरह
सम्पूर्ण होना चाहता हूँ
देकर समर्पित समर्पण
तुम्हारे स्पर्श से .


Thursday, September 9, 2010

अनामिका

नीम अँधेरे सूने घर में
किलक उठी किलकारी
रात अमावस की कालिख में
दीप्त हुई उजियारी ।

मंगलगीत न बजी बधाई
सौगातों का अम्बार न आया
धूमिल छाया जननी पर छाई
सन्नाटों का गुबार है आया ।

किलोल कलरव गुंजित गुंजन
नीरवता कोसों दूर चली
कोना खाली करता मनन
चुपचाप है जीवन नाव चली ।

घर मेरा नहीं पराई हूँ
दैनिक मंत्र जाप था यह
माँ अपनी की कोख जाई हूँ
पराया धन कैसा है यह ।

समय चक्र की गति अविरल
विस्थापित कर दी गई मूल से
नया देस है नया गरल
मुस्कान भा गई मुझे भूल से ।

न जन्मभूमि ने अंक लगाया
ये पूछे कौन देस से आई
जिस आश्रय ने ठौर बिठाया
अपनी निज गरिमा न आई ।

क्या नाम मेरा पहचान मेरी
किस धरा पे खुद को स्थिर करूँ
बसना और बिखरना नियति मेरी
किस सूरज को अचवन मैं करूँ ।

बाबुल की लाडो न रही
प्रिया बनी न अपने पी की
भटकूँ वन-वन पुकार रही
कैसे खोजूं जो अनाम रही ।

Tuesday, September 7, 2010

आसान है ईश्वर होना

ईश्वर होना
बहुत आसान है
क्योंकि
वहां होना होता है
सभी संवेदनाओं से परे
सभी भावनाओं से ऊपर
और कष्ट देती हैं
यही संवेदनाएं
यही भाव

अच्छा है ईश्वर
हो तुम
सभी प्रभावित करने वाले
भावों से ऊपर

लेकिन
मेरे ईश्वर
ए़क बार मेरे ह्रदय में
देखो करके वास
जान जाओगे तुम
प्रेम करना
अधिक कठिन है
ईश्वर होने से

Saturday, September 4, 2010

बदल लो नजरिया धुंए के प्रति

धुंआ
ऊपर की ओर ही
जाता क्यों है
विज्ञान कहेगा
हवा से हलके होने के कारण


किसी प्रेम करने वाले
ह्रदय से जब पूछोगे
कहेगा आग में
जल कर देखो
कभी मिटाने के लिए भूख
कभी कुंदन करने के लिए सोना
कभी बनाने के लिए इस्पात
कभी प्रेम में किसी के ,
ऊपर ही उठोगे
सभी सीमाओं से ऊपर
प्रेम
ऊपर ही उठाता है

जब भी देखना अब
धुआ
समझना जरुर होगी आग कहीं
चूल्हे में
भट्टी में
दिल में

बदल लो नजरिया
धुंए के प्रति

Friday, September 3, 2010

कहीं कोई चिट्ठी

खुशबू तुम्हारी
महका रही है
हंसी की गूँज
गुदगुदा रही है .

तुम्हारी आँखों में
लाज के डोरे
खींचे अपनी ओर
मुझको बुला रहे हैं .

कलाई में बजता
कंगन का जोड़ा
कानो में मेरे
गीत गा रहे हैं .

गालों पर उड़ते
वो आवारा गेसू
लगता है जैसे
मुझको चिढ़ा रहे हैं .

कागज पे तेरा
छुप छुप के लिखना
कहीं कोई चिट्ठी
मेरे गाँव आ रही हैं .

Thursday, September 2, 2010

राधा कृष्ण


ना तुम
कृष्ण
ना मैं
राधा
फिर भी
तेरे बिन
मैं आधी
मेरे बिन
तुम आधा



ना मैं
गोपी
ना तुम
कन्हैया
फिर भी
कैसे तुम
बन गए
मेरे मन के
खेवैया

नहीं तुझमे
सोलह कला
ना ही मुझमे
कोई चमत्कार
कहो ना
फिर भी
क्यों करते हैं हम
राधा कृष्ण सा प्यार

Monday, August 30, 2010

यादों की सलीब

दिल करता है इंतज़ार
कुछ इसको भी कह जाना
जाते हो बहुत दूर मुझसे
मन से दूर न जाना ।

झलक देखने को व्याकुल
दर्शन को तरसेंगी अँखियाँ
कहाँ मैं देखूं छवि तुम्हारी
सावन बरसेंगी अँखियाँ ।

रूप सुदर्शन सबको भाए
चन्दन मन शीतल कर जाए
मीठी बोली बरसाए सुधा
आँख खुले हो जाए विदा ।

हाथ छुडाये जाते हो
स्मृति छुड़ा न पाओगे
जब साथ रहेगी तन्हाई
याद बहुत तुम आओगे ।

दिन रैन बिताऊं पहलू में
नित सपने नव गढ़ते हैं
कैसे मैं खुद को समझाऊँ
तारे नहीं झोली भरते हैं ।

रातें नागिन दिन है पहाड़
हमें काटने हैं खुद ही
यादों की सूली पर चढ़ते
सलीब उठाये हैं खुद ही ।

Saturday, August 28, 2010

अंकुर की चाह

मिटटी
कुछ कहती नहीं
बस रखती है
अपने भीतर
छुपा के
सृजना का गुर ।

अंकुरित
करती है
नव जीवन
जड़ों से
रखती है
थामे पृथ्वी को ।


धैर्य है
उसकी परिभाषा
और सहनशीलता
आभूषण है
सोख लेती है
पानी
बाढ़
अपने भीतर
और खुद को
बना लेती है
और भी अधिक
उर्वर ।

मिटटी
हो तुम
बनने दो मुझे
ए़क अंकुर
जो फूटे
भीतर से
तुम्हारे
और जिसकी जड़े
शाश्वत हो जाएँ
तुम्हारे अंतस में ।

Saturday, August 21, 2010

चन्दन वन में

अपने सपनो के
बनाती हूँ पंख
उड़ चलो तुम
सात समंदर पार ।

अपनी आँखों की
बनाती हूं ज्योति
बढ़ चलो तुम
शिखर की ओर ।

अपने भावों की
बनाती हूं पतवार
कर लो तुम
मन सागर पार ।

अपने गीतों में
सुनाती हूं सन्देश
घूम आओ तुम
परियो के देस ।

अपने ह्रदय पुष्प
बिछाती हूं मैं
कदम बढाओ तुम
मेरे चन्दन वन में ।

अपनी बाहों का एक बार
बना लो झूला
झूल जाऊं मैं बन मोरनी
मन में सावन का मेला ।

Thursday, August 19, 2010

आंसू

आंसू नहीं हैं
बहाने के लिए
संजो कर रखो
छुपा कर रखो
इन्हें
अनमोल मोती हैं
तुम्हारे मन सागर के
ह्रदय सीपी की
धरोहर हैं ये ।

भावों की
पतवार लिए
तिरते हैं ये
घड़ी - घड़ी
इन्हें यूं तनहा
मत छोडो
बिखर जायेंगे
कड़ी - कड़ी ।

आंसुओं को यूं
जाया न करो
रखो उन खुशियों के लिए
जो चाहता हूँ
मैं देना तुम्हें ।

उन खुशगवार लम्हों
के लिए रखो
जब उजास भर गया था
तुम्हारे चेहरे पर
देख मेरा दीप्त चेहरा .

आंसुओं को रखो
तब के लिए भी
जब मिलेगा तुम्हें
अपना खोया हुआ मित्र
धो देना सारे गिले
कर देना इनका अचवन ।

काम आयेंगे
उस समय भी
ये आंसू
जब कंठ से लगा
खोलोगी ह्रदय कपाट
सम्मुख मेरे ।

Sunday, August 15, 2010

सपने और संघर्ष

उठाई जब कलम
रचने को इतिहास
ख़ुशी से लगे इतराने
मेरे कागजात ।


चेहरा मेरा
दर्प से नहाया
आज मुझे भी कुछ
अभिमान हो आया ।


समय की भट्टी ने
चाहा जिसे खोना
गर्दिशों में तप कर
कुंदन हुआ सोना ।

झलकता है इस से
जीतने का जज्बा
अनवरत संघर्षो से
पाने को एक रूतबा ।

लिखते हुए हरफ आखिरी
थरथरा उठी थी नाजुक कलाई
दुआओं के बल पर उठाया जिन्होंने
उनकी स्मृति में आ गई रुलाई ।

पाकर यह मुकाम
मन में थी ख़ुशी
पर एक हूक भी थी
ऊंचाई पर अकेले होने की ।


क्षितिज हूँ मैं
जहाँ मिलते हैं
सपने और संघर्ष
गढ़ने को नई सुबह ।

(नोट: यह कविता तब लिखी थी जब पहली बार राजपत्रित अधिकारी बन कर किसी के कागजात को अभिप्रमाणित कर रही थी। यह कविता अपने पूज्य पिताजी को समर्पित करती हूँ, जिनके सपने और संघर्ष से मैं कोई मुकाम हासिल कर सकी। )

Friday, August 13, 2010

माचिस की तीली

हर तीली में
समाई है वही आग
जो करती है

प्रज्वलित पावन दीप
जलाती है चूल्हा
सुलगाती है अंगीठी
दहकाती है भट्टी
जो गलाती है लोहा
बनाती है इस्पात
भीतर की चिंगारी
माचिस की एक तीली .

आग नहीं
तुम ताप बनो
प्रेम की तपिश बनो
भावों की भट्टी में
गला दो सारा विषाद
पिघला दो सारा अवसाद
कर दो निर्मित कुंदन
तुम्हारे मन जैसा .
.....


एक बूँद अपने आप में
पूर्ण जिसमें
समाया है बादल
समाई है नदी
समाहित है समंदर
जो ले आता है ववंडर
बहा ले जाता है
शहरों के शहर
और दे जाता है
आँखों में समाया आंसू .

बनना है तो बनो बूँद
हर बूँद अपने आप में भरी
स्वयं ही पहली
और स्वयं ही आखिरी
हर बूँद उतनी ही प्यारी
बूँद बूँद का महत्व
है सागर की विशालता में
किसी में समा जाने के लिए
ओस की बूँद की तरह .
......


मिटटी का हर कण
अपने आप में सम्पूर्ण
चाहे गमले में हो
खेत या खलिहान में
या फिर
किसी खूबसूरत घर के लान में
सोख लेती है
सारा गरल
जो होता है अनर्गल .

बदले में देती है
सब नया अनछुआ
और उपयोगी
विशाल है उसका ह्रदय
विस्तृत है उसकी
उर्वरा क्षमता सहनशीलता
एक नारी की तरह ।

........

Wednesday, August 11, 2010

लहरें उतरी आसमान से

लहरें उतरी आसमान से
कहती हैं सब है मेरा
धीर धरा या नीला नभ
इन सबको हमने है घेरा .

कैसे रूखे रह पाओगे
जीवन प्राण मैं भर दूँगी
अतृप्त रहे न कोई जगत में
तृप्त मैं सबको कर दूँगी .

नदी नाप ले गहराई
पोखर देखे अपनी ऊंचाई
धरती सोख रही है मुझको
देने को अपनी तरुणाई .

दोनों हाथ उलीच रही मैं
भर लो अपना घर आँगन
पुरवाई संग लौट गई तो
रीता न रह जाए उनका मन .

धो दूं सब मन का कलुष
नहला दूं सृष्टि सारी
हरी ओढ़नी पहना दूं
या महका दूं रंगों की क्यारी .

प्रतीक्षा मैं है इन्द्रधनुष
कब खुद पर इतराएगा
बदरा मितवा जब देंगे मौका
सतरंगी छटा दिखायेगा .

मैं आई बड़ी आतुर सी
है सारा जग छाप लिया
बाहर भीतर शीतल कर दूं
तुमने जो मुझको याद किया .

जल रहा कश्मीर

बर्फीली घाटियाँ
फूलों की वादियाँ
शोखी की रहनुमाई
यौवन लेता अंगड़ाई ।

फिरती है एक लड़की
कुछ भूली बिसराई
ढूंढ़ती है यादें
है बहुत घबराई ।

खामोश है शिकारे
सूना पड़ा संगीत
केवट है पुकारे
न आये मनमीत ।

धरती का ये स्वर्ग
असुरों ने है घेरा
कहाँ पायें शरण
कहाँ डाले डेरा ।

क्यारी केसर की
महकना है भूली
कली शालीमार की
फिर से न फूली ।

आतंक और जंग
पैठ है लगाये
बारूद की गंध
हर ओर गंधाये ।

लाज पर पहरा नहीं
रक्षित नहीं है आबरू
सब तरफ शमशीर है
जल रहा कश्मीर है ।

Saturday, August 7, 2010

तेरा संग

प्रीत का रंग
भरा उमंग
तेरा संग
सच्चा आनंद

बाहर सावन
भीतर बसंत
स्वर में वीणा
वाणी मृदंग

आँखें स्वप्निल
ह्रदय अन्तरंग
रूप तुम्हारा
अदभुत बहिरंग

छू लो तुम
कुंदन हो जाऊं
धड़क धड़क
ह्रदय समाऊँ

बन मोहक पुष्प
तेरे केश सजाऊँ
या बन भौंरा
तुझ पर मंडराऊं

जब आसपास
लगे हवा महकने
समझ लेना
मैं लगा बहकने

Friday, August 6, 2010

सृष्टा हो तुम

नदी की चंचलता
पर्वत की नीरवता
कलियों की गुपचुप
झरने की सरगम
सब मन में होते हैं
जब तुम करीब होती हो ।

ये दुनिया
कितनी
खूबसूरत लगती है
जब तुम हौले से
मुस्कुरा देती हो
झरना बहता है भीतर ।

जब तुम
दूर कर देती हो
दूसरों के दुःख
मैं पहाड़ हो जाता हूँ
दृढ हो जाता हूँ ।

तुम सुखद स्मृति
संगीत तुम्हीं में
तुम सुंदर स्वपन
झंकार तुम्हीं में
ख़ामोशी तुम्हारी
कहती सब बात
बिना सुने
समझो दिल का हाल ।

बहुत कुछ
बना देती हो मुझे
सृष्टा हो तुम ।

Thursday, August 5, 2010

समय का ए़क टुकड़ा

समय
ए़क पहिये की तरह है
रुका तो समझो
जिंदगी नहीं
चलता रहे
तो जारी है सफ़र


प्रेम भी
ए़क हिस्सा है
समय का
नहीं जताया जो
फिसल जाता है
समय
बंद मुट्ठी में
रेत की तरह
और उम्र
निकल जाती है
नदी की भांति

एहसास है मुझे
समय चल रहा है
अपनी गति से
और हर सांस के साथ
कम हो रहा है
अपने साथ होने का समय.

छोडो अपनी जिद्द
और लौट आओ
समय का ए़क टुकड़ा
अब भी

संभाले हूँ
अपने आँचल में

Sunday, August 1, 2010

मंजिलें

चल पड़े हैं सफ़र पर
रास्ता कुछ है नया
आशा का दीप लिए
लक्ष्य का क्या पता ।

राहें मिलती हैं नहीं
फासले बढते गए
हर कदम कहता सहम
थम लें ठहर दो कदम ।

अच्छा होता गुजर जाते
मोड़ से अनजान हम
बावरा ये मन भागता
न जाने है क्यों वहीँ ।

आईने से पूछूं भला क्या
जवाब कुछ देता नहीं
मालूम नहीं कुछ चल रहा
क्या रास्ता है यही सही ।

पाना है आकाशकुसुम
कठिन डगर है जाना
जाने कौन मिले हमराही
सपनों को है पाना ।

काली घटाओं के मध्य से
मुझे झांकता है कोई
मदभरे अधखुले नयनों से
मुझे झांकता है कोई ।

प्रयास बढाऊं मैं जितना
वह आगे बढती जाती है
गर तुम हो साथ मेरे
थोड़ी करीब आ जाती है ।

गहन कालिमा दिखती है
पर झिलमिल दूर नहीं है
थककर बैठ गए क्या साथी
अब मंजिल दूर नहीं है ।

सावन की झड़ी












बूंदों से बूंदों की होड़ बढ़ी
सावन की कैसे लगी झड़ी
धरा को मिला संपोषित नेह
खिली कोंपलें और तृप्त हुई .

खेतिहरों के माथे सिलवट धुली
बादलों ने जो उठाईं पलकें
जन जन के मन मिसरी घुली
गोरी की अँखियाँ भी छलके .

गगन से लेकर मेरे आँगन
कैसी सजी मोतियों की लड़ी
बैरी बदरा इतना न बरसो
सजना की आती है याद बड़ी .

मतवारे मेघा क्यों हो बौराए
मेरी सुनो तनिक ठहर जाओ
गए है मेरे पिया परदेस
उनकी अटरिया भी बरस आओ .

बीसों पहर झूमकर बरसो
तबहूँ न मोरा जियरा जुड़ाए
अबकी सावन जो लौटेंगे वो
तबहि धधकता कलेजा ठंडाये .

बरखा रानी ह्रदय में समाये
लौट भी जाओ न तडपाओ
अगले चौमासे फिर से आना
संग होंगे प्रियतम बरस के जाना .

Friday, July 30, 2010

दूरी

दूरी से पैदा होता है मोह
मोह से जन्म लेती है माया
माया से बनता है नेह
नेह से उत्पन्न होता है प्रेम
प्रेम से सृजित होता है नया संसार
ऐसी दूरी से क्यों न हो प्यार .

दूरी दूर ले जाती है
अवसादों को तिरोहित कर जाती है
मौन हो जाते है
सब गिले शिकवे
याद रहती है तो बस
खैरियत उनकी
ऐसी दूरी की क्यों न हो चाह .

दूरी मिटा देती है
दिलों की दूरी
दूर रहने पर
याद आते हैं
वो सुखद पल
जो साथ गुजारे थे हमने
वो हसीं लम्हे
जिन्हें साथ जिया था हमने
ऐसी दूरी और पास ले आती है .

Tuesday, July 27, 2010

सब कुछ लागे नया नया

हर दिन एक नया सूर्य
सुबह अलसाई आँखें मूँद
नई धूप है नई रश्मियाँ
है नई ओस की बूँद .

एहसास तुम्हारा लगे नया
नया हर पल तुम लगते नव
अनछुए अनुभव से तुम
हर क्षण लगते नूतन नवीन .

चांदनी सी तुम धुली धुली
नव पल्लव सी खिली खिली
बारिश में जैसे नहाई सी
पत्तों पर बूंदे फिसली फिसली .

नई है कोपल नयी सी रिमझिम
नया स्वर कलकल निर्झर
ख्वाब नए है नयी तरंगे
बहे तुम्हारा नेह झरझर .

नई राह है नई चाह है
नया रस्ता मंजिल भी नई
नई खुशियाँ के रंग नए
कदम चूम ले चमक नई .

Monday, July 26, 2010

विरह के ताप

व्याकुल है जग सारा
ठौर नहीं है घन दल का
मेरा मन भी तड़प रहा
सन्देश न आया साजन का ।

बदरा आये बौछार न आई
घुमड़ घुमड़ लौटे बौराए
कोई तो उनको रोके पूछे
प्यासी धरती से क्यों रूठे ।

तुम्हारी आस में रहते सब
सूनी सूनी मेरी गलियां
आकर बरस भी जाओ अब
भर आई हैं मेरी अंखियाँ ।

सूना सावन सूनी रैना
झूलों का संगीत है सूना
रिमझिम की झड़ी उदास
इन्द्रधनुष में नहीं उजास ।

मतवाले बादल मस्ती में
हवा बावरी टिकने ने दे
अमृत छलकाते तुम आना
पी के देस बरस जाना ।

देख जो पाऊं मैं उनको
व्यथित मन को आये करार
उमड़ते कजरारे मेघा
बरस भी जाओ मूसलाधार ।

प्यास बुझाते हो सबकी
नेह वृष्टि हम पर कर दो
शांत हों विरह के ताप
रसमय शीतलता भर दो ।

Saturday, July 24, 2010

बेटी हूँ मैं

धरती के गर्भ में
पहले समाती हूँ मैं
बड़ी होने से पहले
जड़ों से
उखाड़ दी जाती हूँ मैं
फिर कहीं
विस्थापित होती हूँ मैं
धान की पौध हूँ मैं
बेटी हूँ मैं ।

मेरे जनम पर
नहीं गाये जाते मंगलगीत
नहीं बांटी जाती मिठाइयाँ
माँ को मिलती हैं
ढेर सारी रुसवाइयां
क्योंकि बेटी हूँ मैं ।

मुझसे नहीं मिलेगा
इन्हें मोक्ष
नहीं चलेगा
इनका वंश
पर चलेगी
घर की चक्की
अतिथियों की सेवा टहल
छोटे भाई बहनों का पालन
क्षमता से ज्यादा
है मुझमें हिम्मत
आखिर बेटी हूँ मैं ।

जीवन की साँझ ढले
कंपकंपाते हाथ
जब होते हैं अकेले
नहीं आता कोई श्रवण
बूढी आँखें
जब करती हैं याचना
सहारे की
तब आगे आती हूँ मैं
कांवर उठाती हूँ मैं
सीने से लगाती हूँ मैं
वे मेरे पूजनीय हैं
जिगर का टुकड़ा हूँ मैं
उनकी बेटी हूँ मैं ।

Thursday, July 22, 2010

ओस

गिरा गगन से जल मोती
जमीं पे आके मिला फूल से
फूल ने पहले पंख बिठाया
फिर अपने उर कंठ लगाया






दोनों मिल बतियाने लगे
मंद मंद मुस्काने लगे
ओस ढुलक गई धीरे से
साथ छूट गया हीरे से

अरुणिमा पूरब में लहराए
धीमे बहती ठंडी हवाएं
खिला कुसुम मध्यम मुस्काए
उस पर ओस की बूंदे छाये

कब तक जी पायेगी बूँद
पत्ते के आलिंगन में
बस चुकी है कब की
मेरे ही व्याकुल मन में

पल भर को सजना
शरमाई शबनम की तरह
एक ही क्षण में बिखरना
ठुकराई दुल्हन की तरह

कब तक यूं ही चलेगा
सजना और बिखरना
कभी ऐसा भी होगा
सिर्फ उनके लिए संवरना

पंखुरियों पर प्यार जताना
ओस के दर्पण में तुम आना
मेरे जीवन की है आकांक्षा
निर्मल बूंदों की करूँ प्रतीक्षा

Tuesday, July 20, 2010

मिटटी

मैंने तो
बस भेजी थी
कच्ची मिटटी
तुमने बना दिया
उसे कलश
जिसमे भरा है
शीतल गंगा जल
करने को
पावन
बुझाने को
प्यास

मिटटी
क्या रूप लेगी
तय नहीं करती मिटटी
ये तो गढ़ने वाले हाथ
और चाक का कमाल है

प्यार की थपकी
मिले जिस दिशा में
वही आकार पा
जाती है मिटटी

मिटटी
भेजी थी तुमने
संग थे मेरे सपने
चाक था घुमाया
रूप सुदर्शन पाया
कुम्हार का कुम्हलाया
दीप्त हुआ चेहरा
हकीकत देख सुम्मुख
बहुत जी हरषाया

मिटटी को चूमा
माथे से लगाया .

Monday, July 19, 2010

भाग रहे हैं हम

तेज चलती गाड़ी
से देखो बाहर
भाग रहे होते हैं
खेत खलिहान
पेड़ पौधे
नदी तालाब
पहाड़ और
इन्तजार कर रही लड़की
जैसे छूटी जाती है
स्मृति
अपनी दुनिया की
बस भाग रहे हैं हम ।

आगे कहाँ
भागे जा रहे हैं हम
नहीं पता मुझे
अपने गावं परिवेश
सभ्यता संस्कृति
जड़ों से दूर होते हम
भाग रहे हैं हम ।

आज की
तेज रफ़्तार जिन्दगी में
दौड़ रहे हैं हम
छोड़कर
अपने अपनों को
जीवन मूल्यों को
सावन के झूलों को
भाग रहे हैं हम ।

एक दूसरे से आगे
निकल जाने की होड़ में
आगे वाले को
रौंद देना चाहते हैं हम
भूलकर नैतिकता
मिटाकर मानवता
हटाकर शिष्टाचार
बस भाग रहे हैं हम ।

Friday, July 16, 2010

रास्ते

पतली सी पगडण्डी हो
या आड़े तिरछे रस्ते
संकरी सी गलियां हों
या सीना ताने राजमार्ग ।

रास्ते हैं ये अंतहीन
दिशा का बोध कराते हैं
पथिक हो चाहे कैसा भी
मंजिल तक पहुंचाते हैं ।

दोराहे या चौराहे पर
भटक न जाना थम जाना
लेकर साथ अपना विवेक
लक्ष्य को अपने पा जाना ।

ये करते हैं इन्तजार
कब आयें प्रियवर मेरे
उनकी राहों में छावं बना दें
थक न जाएँ रघुवर मेरे ।

राह से तुम जाओगे गुजर
सुवासित हो जायेगी डगर
पंथ बुहारेगी पुरवईया
यहाँ से होकर गए सांवरिया ।

तलाश मुझे उस राह की
तेरे ह्रदय तक जाती हो
कोई और न सोचे जाने की
सिर्फ मुझे वहां ले जाती हो ।

Wednesday, July 14, 2010

मंजरियाँ

आम्र पर बौर आये हैं
लगता वसंत की अगुवाई है
कोकिल ने छेड़ी मधुर तान
बजी ऋतुओं की शहनाई है ।

शुभ्र आगत का संकेत
लाई आम की मंजरियाँ
सुख वैभव की लिए पालकी
सस्वर हैं गाती ठुमरियां ।

हम सब की प्रिय हो तुम
देवों के सिर चढ़ इठलाती हो
तुम पावन, तुमसे पल्लव
प्रतीक सृजन की कहलाती हो ।

मंजरियाँ आयें शुभ आगम
कामदेव की विधा हो तुम
समृद्धि का रहे समागम
भावों की भीनी भोर हो तुम ।

मंजरियों की अलकें लगी झूलने
कोई गीत पुराना याद आया
मन गलियों में लगा घूमने
कल में आज है डूब गया ।

तुम्हीं से फल सिरमौर बना
जग में ऊँचा इसका धाम
सुगंध से है सरताज बना
सांवरिया का जैसे नाम ।

आया ऋतुराज तुम भी आओ
प्रकृति ने भेजी मधुशाला
मौसम पर मादकता छा दो
छलका दो अपनी प्रीत का प्याला ।

Saturday, July 10, 2010

मन का आँगन

मेरे मन के आँगन में
बीज प्रीत का रोपा मैंने
भीने भाव की नमी दी उसमें
दिव्य कुसुम सा पाया मैंने.

स्वर्णिम स्वप्नों से सहलाती
कैसा होगा यह सुंदर मेल
लरज लरजकर बतियाती
पुष्पों से लदी सुवासित बेल .

घर के हर कोने में फैली
कितना लाड लड़ाती है
मुझे दूर न कर पाओगे
गर्वित हो कह जाती है .

ज्योत्स्ना इसकी कण कण में
कुछ तीव्र गति है बढने की
खुश्बू इसकी रोम रोम में
हठयोगी नहीं कुछ घटने की .

अपार हर्ष हो या अवसाद
कहती है मैं साथ तेरे
मुझसे कह दो तो घटे विषाद
फटके न कभी यह पास तेरे .

चंदा की चटक चांदनी सी
मुस्काती भली सी लगती हो
कभी न ग्रहण हो तुम पर
सकुचाती रेशम लगती हो .

जब गुजरो इस राह से बालम
आँगन में मेरे सुस्ता लेना
कुछ शोख लताएँ अमरप्रेम की
संग अंग में रख लेना .

Thursday, July 8, 2010

चिट्ठियां



कागज का लघु अंश नहीं
दिल का हाल सुनाता हूँ
सुख दुःख हो या मिलन बिछोह
सीने पर रखकर लाता हूँ .


दुल्हन की हंसी खनकती सी
ओढ़कर उड़कर आऊं मैं
लिए खारा पानी बिरहन का
खामोश सा सब कह जाऊं मैं .

शीश नवाए खड़ा हूँ मैं
लिख दो मुझ पर मन की बात
भीतर अपने समाये हुए मैं
हूँ मैं तेरा सच्चा हमराज .

संगी मैं तेरे सपनों का
खुशियों का प्रमाण हूँ मैं
लगा कर रखो ह्रदय से
बीते वक़्त की आन हूँ मैं .

राधा मेरा पंथ निहारे
बैराग धरा है मीरा ने
श्यामसुंदर न मुडकर देखे
सन्देश न भेजा बंसीधर ने .

धरोहर मैं नवयौवन की
दीपक हूँ माँ की आस का
गोरी मुझे बांचे उलट पुलट
लाया प्रेम संदेशा तेरे प्रिय का .

Sunday, July 4, 2010

परदेस

सर्र सर्र बहती पुरवाई
चैन जिया का ले भागी
सूना जीवन सूना आँगन
मैं तो रह गई ठगी ठगी .

झूठी प्रीत लगा के मुझसे
पिया छोड़ गए परदेस
सरस सरोवर डूब गई मैं
आया न कोई सन्देश .

सारी रतिया जाग जाग
उनके विरह में काटी
प्रेम की प्यासी दर-दर भटकूँ
कैसे मैं जिऊँ अभागी .

अपना आँगन जान से प्यारा
अब लगे पराया देश
साजन आ भी जाओ
किसी विधि रखकर कोई भेस .

याद तुम्हारी बड़ी सताती
मन को घायल कर जाती
भोर भए पनघट पर
मोरी गगरी छलकत जाती .

तरस गई हैं प्यासी अँखियाँ
तुमसे मिलने की आस में
लगन लगी तेरे नाम की मुझको
जिऊँ दर्शन की आस में .

Wednesday, June 30, 2010

गौरैया

चीं चीं स्वर ने मुझे जगाया
भोर हुई गौरैया ने बताया
मेरे घर आँगन के कोने
लचक डाल पर नीड़ बनाया ।

तिनका तिनका चुन लाती
सजाती अपना रैन बसेरा
चूजों से खूब लाड लड़ाती
उड़ जाती जब होता सवेरा ।

चोंच में दाना भरकर लाती
माँ को देख पुलक वे जाते
मुख से मुख लगा खिलाती
गर होते पंख वे उड़ जाते ।

भर लो तुम ऊंची उड़ान
धरा पर आना ही होगा
पंख पसारो चाहे जितने
संध्या लौटना ही होगा ।

अचानक एक तूफ़ान उठा
वायु क्रोध से पेड़ हताहत
घरोंदा रहा न गौरैया का
उजड़ा था घर बार किसी का ।

आओ फिर से वृक्ष लगाऊं
तुम्हारी उस पर ठौर बनाऊं
दुःख अपना तुम मुझे बताओ
आओ मेरे गले लग जाओ ।

गौरैया तुम मत घबराना
जीवन की है रीत यही
कुछ खोना है कुछ पाना
नियति देती है सीख यही ।

रोज एक मीठा गीत सुनाना
दूर देश की सैर को जाना
साँझ ढले जब लौट के आना
मेरे प्रिय का संदेसा लाना ।

Wednesday, June 23, 2010

सुबह

रश्मियाँ रक्तिम चटक उठीं
उठ मनवा क्यों सोया है
कजरारी रतिया बीत गयी
किसके सपनों में खोया है ।

रात सिर्फ एक रात नहीं
संवाहक है मीठी यादों की
चहल पहल से दूर कहीं
थाती है प्रिय की बातों की ।

हों दुःख की बोझिल रातें
आखिर कट ही जाएँगी
इन्तजार की लम्बी घड़ियाँ
सुबह सुहानी लायेंगी ।

चाँद और तारों का झुरमुट
बिरहन को तड़पाता है
सुप्रभात होगा एक दिन
चुपके से समझाता है ।

होती नित्य सुबह नई
कितनी यह भोर अनोखी है
लेने आयेंगे मीत मुझे
कितनी यह सुबह सलोनी है ।

Monday, June 21, 2010

तस्वीर

तस्वीर बसी इन आँखों में
जिधर देखती तुम ही हो
छवि निरंतन तैर रही
फिर क्योंकर इतना रूठे हो ।

गुजर गए कितने सावन
तेरी आस में याद नहीं
बेकरारी ये भी मनभावन
अपनी कुछ परवाह नहीं ।

बाहों की रेशम पुष्प डाल
कुछ अनमन और गुमसुम सी
भाग्यविधाता क्या दोष मेरा
मैं क्यों हूँ खोई खोई सी ।

सपनों में तस्वीर बनाऊं
नित लगती है नई नई
उससे घंटों बातें करती
मन भरता है कहीं नहीं ।

तस्वीर में उतरा अक्स मेरा
मानो मेरी परछाईं है
लगता नहीं दूर हो तुम
यादों की बदरी छाई है ।

Tuesday, June 15, 2010

दुआ

उठे जो हाथ
दुआ के लिए
उसमें
तुम ही तो थे ।

ईश्वर से माँगा
थोड़ा सुकून
तुम्हारे
लिए ही तो था ।

झुक गया
मेरा सर्वांग
तुम्हें
और ऊंचा
उठाने के लिए ही ।

झोली अपनी
फैला दी
मैंने
तुम्हें
पाने के लिए ही ।

आरजू की
हो पाऊं दृढ
तुम्हें
हर बला से
बचाने के लिए ही ।

हसरत थी
कुछ मांगू
उनसे
बिन मांगे ही
मिल गया सब ।

तुम जो मिल गए ।

Monday, June 14, 2010

चन्दा

ऐ चन्दा ! तुम आज रात
हमसे मिलने आ जाना
चाँदी सी धवल डोरियाँ
आँगन में बिसरा जाना ।

सूनी रातों के साक्षी तुम
हमें निहारा करते हो
बैरन बदली की ओट ले
कुछ समझाया करते हो ।

नागिन सी काली रात
काटे से नहीं कटती है
आओ हम तुम बतलाएं
गमगीन है वो भी कहती है ।

मेरा यह पैगाम तुम्हें
उन तक पहुँचाना ही होगा
याद में उनकी मीरा हो गई
अब तो आना ही होगा ।

तारों की बारात लिए
तुम कितना इतराते हो
रंगहीन जीवन पर मेरे
क्या आंसू नहीं बहाते हो ।

ताप विरह की अधिक सताए
थोड़ी शीतलता भर देना
मिलूं जब अपने साजन से
मुट्ठी भर मादकता दे देना ।

Sunday, May 30, 2010

कोयल

अमराई के झुरमुट में
कोकिल गाये मीठा कितना
पथिकों के पद थम जाए
आमों में भरती रस कितना ।

मौसम की पहली बारिश
उसकी याद दिलाती है
तू क्या जाने पगली कोयल
मन कितना तड़पाती है ।

कंठ में रहे छिपाए
भरपूर कसक का प्याला
बैरन तुम बिरहन की
परदेश बसा है मतवाला ।

कारी कोइलिया
बसो मोरे अंगना
कुहू कुहू करना
जब आयेंगे सजना ।

Friday, May 28, 2010

गृहप्रवेश

वर्षों के इन्तजार से जूझे
गृहप्रवेश का दिन आया
एक घरौंदे की आस मुझे
आज बहुत मन हर्षाया ।

तिनका तिनका जोड़ा हमने
अपना भी एक घर होगा
घर आँगन बगिया महकेंगे
खुशियों का रैन बसेरा होगा ।

छोटा सा अपना यह घर
कितना अपनापन लिए खड़ा
आओ मुझमें रच बस जाओ
स्वागत को उत्सुक रहे खड़ा ।

नीड़ मेरा पहचान मेरी
निज निजता बसती है इसमें
साथी मेरे सुख दुःख का
सपनों की दुनिया है जिसमें ।

नीले नभ की छावं तले
जग में यही ठौर भाये
दीवारों में एहसास पले
जीवन हर कोने बस जाये ।

इस द्वार से आयें मनभावन
गंगा जल से पैर पखारूँ
राह में पलकें बिछवा दूं
सबसे अनमोल चीज मैं वारूँ ।

Sunday, May 23, 2010

पहली बार

आलता लगे पांवों से
जब लांघी थी
तुमने
पहली बार
मेरे घर की
चौखट
लगा था मानो
महालक्ष्मी साक्षात्
चलकर आई है
मेरे आँगन में
क्षीरसागर से ।

रुनझुन रुनझुन
तुम्हारी
पाजेब की
घोलती है कानों में
मिसरी या
तानसेन ने
मेरे द्वार
छेड़ दिया हो कोई
मधुर राग

तुम्हारे
गेसुओं का मोगरा
महका गया था
मेरी सांसे
घटा बन
मेरी रातों पर
छा गया था
तुम्हारे मदभरे
नयनों का कजरा ।

बादलों के बीच
दूज
के चाँद
सा चेहरा
तुम्हारा
जब घूँघट की आड़
से निहारा था तुमने
मुझे
और पलकें
बोझिल हो गई
थी तुम्हारी
लाज से ।

तुम आई
मेरे जीवन में
लगा
एक ही पल में
जी ली हैं
सदियाँ मैंने
तुम्हारे साथ ।









Monday, May 17, 2010

तुम्हारी चूड़ियाँ

तुम्हारी चूड़ियों के जुगनू
मुझे रात भर जगाते हैं
तुम्हारी आँखों के सितारे
मेरे नयनों में झिलमिलाते हैं ।

आरजुओं की आंधी
मुझे उड़ा ले जाती है
तपते रेगिस्तान में
जलने को छोड़ जाती है ।

तुम्हारे गेसुओं के बादल
घुमड़ते गरजते हैं जरूर
मोती नेह के बरसाए बिना
गुजर जाते हैं लिए गुरूर ।

तुम्हारी हंसी की खनखनाहट
कानों में गुंजन करती है
युगल पंखुरी पर मुस्कान
स्पंदन ह्रदय में भरती है ।

प्रतीक्षा में तुम्हारी रहूँ विभोर
कल्पना सुवासित करती है
स्वर्णिम पल, तुम हो सम्मुख
यह सोच उल्लसित करती है ।

Thursday, May 13, 2010

लहरों के बीच

बहती नदिया उद्दात्त वेग
संकल्प उन्हें बहा ले जाऊं
डूबती उतराती लहरियां
उन्हीं में समाहित हो जाऊं ।

अति गति इन लहरों की
अपना अस्तित्व बचाऊं कैसे
इस बहुरूपिये समाज में
अपनी ठौर बनाऊं कैसे ।

जग में आने से अब तक
गाथा संघर्ष की संग हुई
हर पल मरना, तिल तिल जलना
कैसे मैं इतनी मुखर हुई ।

प्रस्थान है आगे की तैयारी
लहरों से लड़ती मनमानी
विपरीत दिशा में है जाना
मन में अब मैंने ठानी ।

उठता ज्वार इन लहरों का
अब मुझे डरा ना पायेगा
राह बनाऊं इनमें अपनी
निश्चय से डिगा ना पायेगा ।

उफनता राग उन्मत्त आभास
कलकल संगीत बनाऊँगी
लहरों से करती परिहास
संगम धारा बन जाऊंगी ।

Sunday, May 9, 2010

नीला नभ

नीला अम्बर नीलाम्बर का
है रस्ता सूरज चंदा का
दामन में जुगनू से तारे
चमचम करते कितने प्यारे ।

नीलाभ मनोहारी कितना
स्वर्ग सरीखा दिखता है
अनुपम सा इस पर इन्द्रधनुष
मुकुट रंगीला लगता है ।

बादल खेले आंखमिचौनी
सूरज संग हौले हौले
तेज हवा ने आँख दिखाई
बदरा उड़कर आगे हो ले ।

आशाओं की बदरी बन
जब मेघ बरसते हैं घनघोर
प्यासी पृथ्वी की प्यास बुझा
मुरझाये मन में उठे हिलोर ।

बतियाता संग चांदनी के
पक्षी संग गाता है गीत
साँझ ढले धरती संग मिलता
जैसे उसका हो मनमीत ।

Friday, April 30, 2010

तितली

सतरंगी पालकी पर
इठलाती है फिरती
है कौन यह
अरे !!! ये तो है तितली ।

किस चित्रकार की
तूलिका से निकली
फूलों से करती आलिंगन
बागों में उड़ती मनचली ।

किस कवि की कल्पना
भंगिमा किस भाव की
किस शिल्पी की प्रतिमा
रचना किस रचनाकार की ।

शोख सी चंचल हो तुम
नाजों से ज्यादा नाजुक हो
स्पर्श से होती हो आहत
बढ़कर सुरा से मादक हो ।

जब वसंत की अगुवाई
करती मंद मलय पुरवाई
तुम्हे आमंत्रण देती अमराई
तुम आती कुछ इतराई ।

फूलों से यह फूल झड रहे
फूल तुम्हें अर्पण कर दें
सबके सब तेरी राह निहारें
खुशबू का सजदा कर दें ।

मेरे भी मन उपवन में
पल दो पल रहो ठहर
ऐसी रंगीनी रंग दो
रंगरेज भी जाए सिहर ।

Monday, April 26, 2010

लड़कियां

हमसे है रौनक जहाँ की
शोभा हमसे बागवां की
हम भोर की हैं रश्मियाँ
हम बेटियां, हम लड़कियां ।

गौरेया सी फुदकती
मैया के आँचल में
कोयल सी चहकती
भैया के प्रांगण में ।

छोटी सी हीरे की कनी
आँगन बुहारती बाबुल का
कली से भी कोमल है जो
चौबारा संवारती बाबा का ।

हमसे है सृजन सृष्टि
पोषण हमीं से
हमसे है ममता वत्सल
नेह वृष्टि हमीं से ।

घूँघट की आड़ में
घर में रंगोली भरती
यदि पंख पसार दिए
तो सैर चाँद की करती ।

पत्नी सा विश्वास भरा
रोमांच प्रेयसी सा छलके
पृथ्वी सी सब किये समाहित
दया क्षमा धीर शील बनके ।

एक छोटी सी चिंगारी
या नभ कड़काती दामिनी
आफताब कहो या सुर्ख गुलाब
या मीत, मधुर, मधुयामिनी ।

Tuesday, April 20, 2010

गेहूं की बालियाँ

सुनहरी सुनहरी
गेहूं की बालियाँ
जैसे भू पर सजी हों
सोने की थालियाँ ।

ये मेहनत हमारी कि
लरजकर लहरायें
है हिम्मत हमारी कि
रज से रजत उपजाएँ ।

स्वास्तिक है यह
हमारी खुशहाली का
समृद्धि का वैभव का
हर दिन दिवाली का ।

पक जाएँ जब
गेहूं के ये छंद
उत्सव मनाएं
सभी संग- संग ।

संजीवनी सी महके
सरसों लेती अंगड़ाई
कुंदन सी खिली बालियाँ
करती गुंजन संग पुरवाई ।

पगडण्डी और मेड़ो से
खलिहान तक का सफ़र
तुम्हारे लिए लाती
ओढ़नी में संजोये , भरी दोपहर ।

जीवंत हो उठे हैं
वो मोहक से पल
तुम खेतों के बीच
और मैं निकट हल ।



Monday, April 19, 2010

मेरी परिधि

असंख्य वृत्त नित्य निर्मित
अनवरत है परिक्रमा मेरी
मध्य मेरे अपने मेरे सपने
यही तो है परिधि मेरी ।

संसार मेरा यह परिधि चक्र
खो गया जिसमे मेरा निजपन
मन है इससे बाहर लान्घू
डर है खो ना दूं संतुलन ।

ना जाने कौन राह से तुम
इस परिधि में चले आये हो
सीमाबंधन को तोड़ के तुम
मन का कोना हथियाए हो ।

परिधि में एक शून्य बना
कल लौट तुम जाओगे
भर जाएगा खामोश रीतापन
स्मृतियों में यूं बस जाओगे ।

इस परिधि के आसपास
तुम अपना नीड़ बना लेना
थक जाऊं जब घूम - घाम
उर में मेरे गति भर देना ।

Thursday, April 15, 2010

माली

कली ने कली से कहा कान में
ये माली है या कि रचयिता हमारा
हमें ये सहेजे, हमें ये संवारे
आखिर ये लगता है कौन हमारा ।

भोर हुई, आये आतुर से
प्यार से सींचे और दुलराये
मुरझाया देख हमें
इसका मुख भी कुम्हलाये ।

रोपा एक नन्हा सा बीज
ढेरों आशाएं साथ लिए
खिल आयेंगे पुष्प सुगन्धित
उम्मीदों को साथ लिए ।

हम लहरायें
ये खुश हो जाये
शूल चुभा दें
तो भी मुस्काये ।

इसने रची है रचना ऐसी
सुकुमार, सुकोमल और सुमधुर
खुशबु ऐसी भीनी - भीनी
मन ह्रदय तरंगित हो भीतर ।

प्रेमी के हाथ मनुहार लिए
हीर के गीत पिरोयें हैं
निश्छल मुस्कान की परछाई
शीरी ने नैन भिगोयें हैं ।

हे माली, ना हो उदास
हम फिर वापस आयेंगे
आहट होगी जब वसंत की
एक- दूजे को कंठ लगायेंगे ।

Sunday, April 11, 2010

कागज़

कागज़ का पुर्जा हूँ मैं
या एक छोटा सा टुकड़ा
मुझमें देख रही है गोरी
अपने प्रिय का मुखड़ा ।

कागज़, एक कोरा कागज़
या हूँ तेरे मन की स्लेट
जो कुछ संकोच हो कहने में
जड़ दो मुझ पर अर्थ समेट ।

जिसकी आस में जोगन हो गई
कब आएगी प्रेम की पतिया
कागज़ के रथ पर सवार
करने आयेंगे मन की बतिया ।

सात समंदर पार बसे हो
किसकी डार मैं लागूँ साजन
एक तेरी चिट्ठी का सहारा
जिसकी राह निहारूं साजन ।

दिल अपना मैं चीर के रख दूं
संदेसा ले जा प्रेम कबूतर
जाकर चरणों में रख देना
बसी स्मृति है जिनकी भीतर ।

कब आओगे पूछ के आना
कह देना सब दिल का हाल
बिन तेरे मैं हुई अधूरी
बेबस, बेकल और बेहाल ।

कागज़ के मैं पंख बनाऊं
आकाश नाप लूं , तुम तक आऊँ
या कागज़ की बना के किस्ती
तैरा दूं, तुम तक पहुँचाऊँ ।

कागज़ धन्य हुआ उस पल
जब पढ़कर उसने ह्रदय लगाया
ख़ुशी से नाची, था उल्लास
उनसे मिलने का न्योता लाया ।

Tuesday, April 6, 2010

दीप

गहन तिमिर में सेंध लगा
एक ज्योतिपुंज लहराया
घोर अँधेरा जितना भी हो
विजय दर्प फहराया ।

रात अमावस की हो चाहे
चन्द्र दूज बन आऊंगा
सघन निशा के जितने पहरे
शुभ प्रभात दिखलाऊंगा ।

मैं सारथी हूँ उजास का
तेरे जीवन में आऊंगा
उम्मीदों का बन प्रतीक
जगमग जगमग कर जाऊँगा ।

दीप, सिर्फ एक दीप नहीं मैं
साक्षी हूँ तेरे सपनों का
आशाओं का तेरे बसेरा
साथी हूँ तेरे अपनों का ।

हे मेरे झीने प्रकाश जा
उनके पथ को आलोकित कर
भटक न जाएँ मेरे प्रियवर
राह दिखा ध्रुव तारा बनकर ।

Wednesday, March 31, 2010

गिलहरी

युद्ध बिगुल बज उठा
वानर सेना ने कसम उठाई
लंका को जीत हम लेंगे
सागर के उर पर करें चढाई ।


महासागर पर सेतु बाँधा
नल और नील कुशल निर्माता
पत्थर तैरेंगे जल पर
आयेंगे लखन और भ्राता ।


दिल में कुछ अनुराग लिए
थी एक गिलहरी देख रही
श्रीराम पधारेंगें इस पर
मन ही मन कुछ सोच रही ।


भाग्यशाली है पुल कितना
पदार्पण इस पर प्रभु का होगा
ऊबड़ खाबड़ से सेतु पर
कैसे उनका चलना होगा ।


शूल चुभेंगे उन पैरों में
जिनको हम शीश नवाते हैं
चरण रज मस्तक पर सजा
फूलों का अर्पण करते हैं ।


कैसे इस राह को
करूँ सुवासित , महका दूं
कंकड़ चुन लूं, पुष्प बिछा
रेशम सा मखमल कर दूं ।


आनन फानन में कूद पड़ी
वह सागर के भीतर
खुद को सारा भिगो लिया
कुछ पानी मुंह के भीतर ।


एक लोट लगाईं धूल धूसरित
झाडा खुद को पुल पर जाके
सेतु को समतल कर दूंगी
हुई प्रफुल्लित मन की करके ।


विस्मित से राम यह देख रहे
इस जीव की करुणा भक्ति को
ये देना चाहे योगदान
प्रणाम है इसकी शक्ति को ।


प्रभु निकट गिलहरी के पहुंचे
करकमलों में दी प्रेम से थाप
हाथ फिराया स्नेह से उस पर
अमिट हो गई उँगलियों की छाप ।

Friday, March 19, 2010

नदिया की धार

कलकल करता जल शीतल
कितना पावन, कितना निर्मल
लुभाती है नदिया की धार
चराचर का जीवन आधार ।

इठलाती बलखाती लहरें
मीठा राग सुनाती हैं
नदिया का सागर में मिलना
तय है, हमें बताती हैं ।

अपलक निहारूं मैं तट पर
इसकी चांदी सी लहरों को
बाहों में आओ भर लूं
देती आमंत्रण हम सबको ।

कितने सीप, सीप में मोती
हीरे पन्ने और पुखराज
मुझमें है खामोश पड़े
संस्कृति सभ्यताओं के राज ।

नदी हूँ मैं
गति ही मेरी नियति है
रोकोगे तो खो दोगे
बहना ही मेरी प्रकृति है ।

अमृत समान यह स्वच्छ नीर
इस जैसा कोई और ना होगा
दूषित जो कर दिया मुझे
सृष्टि का फलना ना होगा ।

आ जाओ, तुमको अंक समा लूं
तन मन हो जाए धवल
इतनी शीतलता भर दूं
तेरा मन ना रहे विकल ।

है मुझको उसका इन्तजार
साहिल को मेरे संवारें जो
मिला ना ऐसा गोताखोर
मणि गरिमा को खोजे जो ।

द्वन्द

मरुभूमि में खड़ी अकेली

तपता सूरज है सिर पर

मृग कस्तूरी खोज रही

पानी का सोता दूरी पर ।।।

इच्छा है प्यास बुझाऊं मैं

वह आगे बढता जाता है

मैं जाऊं उसके पास पास

वह मुझको छलता जाता है ।।।

तुमको पाने का दिवास्वपन

पलकों में अपनी पाल रही

पूरी ना हो यह चाह कभी

मन ही मन मन्नत मान रही ।।।

कितना मनभावन पल होगा

जब दीया बाती मिल जायेंगे

क्या मंदिर में शंख बजेंगे

या ज्वार सुनामी के आयेंगे ।।।

रीतापन ह्रदय में भर आया

द्वन्द ये कैसा मन पर छाया

स्वर्णिम यादें पीछे छोड़ी

ये है बिछोह या प्रीत निगोड़ी ।।।

Thursday, March 11, 2010

सृजन के बीज

अपने आँगन की क्यारी में
बीज सृजन के मैंने बोये
गर्भ गृह में समा गया क्या
सोच सोच कर मन रोये ।

एक सुबह देखा मैंने
पाषाण धरा को चीर
बाती सा एक अंकुर
मुस्काया, हरी मेरी पीर ।

मैं रोज सींचती ममता से
था उल्लास नहीं खोया
सर सर समीर झुलाती उसको
जैसे अबोध शिशु हो सोया ।

आस थी कब पल्लवित होगा
कब आयेंगे उस पर फल
मेरे हर्ष का पार न होगा
मेरी सृजना हो जाये सफल ।

कैसा था वह सुखद प्रभात
जब कली ने आँखें खोली
दुलराती उसको देख देख
इतराई मैं, वह थी अलबेली ।

अंतर में कितने पराग लिए
इसका उसको भान ना था
साथ में थे मेरे सपने
उसे जरा अभिमान ना था ।

पुष्प खिला उपहार मिला
मेरे जीवन में आया वसंत
तितली बोले, मधुकर डोले
आम्र बौर कितनी पसंद ।

किसको दूं यह कुसुम सुगन्धित
खुशबू जिसमे रच बस जाए
डाली से कोई दूर ना हो
इच्छा, यहीं अमर हो जाए ।

Tuesday, March 9, 2010

सबसे न्यारा दोस्त

रश्क हो चला हमें भाग्य से
सखा जो ऐसा दिया है लाकर
भर दी जिसने झोली मेरी
नीलगगन से जुगनू लाकर ।

दोस्त मेरा है सबसे प्यारा
कितना सुन्दर, कितना न्यारा
अपनाने को आतुर अश्रुधार
सौप चुके जीवन आधार ।

लगते नहीं इस धरा के तुम
देवो सी बाते करते हो
पलक पालकी बिठलाकर
कितना इतराया करते हो ।

न देखें तुम्हे तो हो न सवेरा
सूना रह जाये मन का बसेरा
भर देते चेहरे पर उजास
मुस्कान तेरी जीवन प्रकाश ।

हर्षित हो, गरिमा का
तुमने भान रखा
राहों में कलियाँ बिखराकर
तुमने मेरा मान रखा ।

नैनों के मोती चुनने को,
जो तुमने फलक पसार दिया
मैं वारी जाऊं उस पल पर,
जिसने इतना अधिकार दिया ।

मेरे सपनों के साथी तुम
वादा है उम्र लुटाने का
आओ , ख्वाबों में रंग भरें
वक्त नहीं कुछ सुनने और सुनाने का .

Saturday, March 6, 2010

प्रभु बसे मन माहीं


कान्हा की रुकमन ना थी
राधा जैसी ताब कहाँ
धन्य कहूँ मैं अपने को
यदि मीरा जैसी भी बात यहाँ ।

अपने गिरधर के रंग में
रंग जाऊ यदि मीरा जैसी
कोई रंग ना दूजा चढ़ने पाए
कृष्ण दीवानी मीरा जैसी ।

रोम रोम में पगे कन्हैया
ह्रदय बसे हैं रास रचैया
नाम पर उनके सब सुख छोड़ा
एक चितचोर से नाता जोड़ा ।

अब तो बस एक आस बची है
दर्शन कब देंगे तारणहार
स्वपन में आकर, झलक दिखाकर
कहाँ गए वो पालनहार ।

झीनी झीनी सी प्रेम चदरिया
मीरा ने अंग डारी
बंसीधर को घर- वन ढूंढे
प्रियवर बसे मन माहीं ।

Monday, February 22, 2010

रंग बरसे

होली आने में दिवस बचे
रंगों की फुहार चली आई ।

हम बाट जोहते कान्हा की
राधा रंग लिए चली आई ।

है मेला रंग, गुलालों का
जज्बातों का, मनुहारों का ।

भांग घोटते , गाते रसिया
थिरक रही गोरी मनबसिया ।

होली मिलन की है तैयारी
मस्ती में झूम रहे नर-नारी ।

है आस मुझे, रंग दूं प्रिय को
लाज, हया तज, अंग लगूं प्रिय के ।

रंग, अबीर सब और, धूम है भारी
चाहे भीगे धानी चुनरिया या फिर भीगे साड़ी ।

Sunday, February 14, 2010

हवा उदास है

मलिन हुआ क्यों दप-दप मुखड़ा
नैनो में ख़ामोशी छाई
लब भी थोड़े चुप-चुप से है
क्यों घटा उदासी की छाई ।

अल्हड लट है शांत हुई
मन का उद्वेग थमा सा है
मेरी बातों से हुए हो आहत
क्या बोल मेरा खंजर सा है ।

डर था मुझको इसी बात का
जो अब है प्रत्यक्ष हुआ
ह्रदय पाट नहीं खोले अभी
बस एक झरोखे से यह हाल हुआ ।

मेरे अंतर में लगा के गोता
जब तुम बाहर आओगे
दूर देश बस जाओगे
फिर निकट नहीं तुम आओगे ।

Tuesday, February 9, 2010

प्रेम के मोती

सोनचिरैया हूँ मैं तुम्हारी
पुचकार के दाना डालो
नहीं चुगु मैं हीरे मानिक
प्रेम के मोती डालो ।

हृदय पिंजर में कैद यहाँ
सोच सोच व्याकुल हूँ
द्वार खुला क्यों छोड़ गए तुम
देख देख आकुल हूँ ।

पंख पसारूं दूर गगन में
या रहूँ यहीं बंदिनी बनकर
उन्मुक्त व्योम में भरू उड़ान
या रहूँ तुम्हारी हंसिनी बनकर ।

हूँ सोने के बंदीगृह में
मन चाहे स्वछन्द उड़ान
प्रेम के मोती चुग ले हंसा
रह जायेगा मेरा मान ।

Sunday, February 7, 2010

अभिलाषा

यो चातक के जैसे मुझे न निहारो

मैं अभिलाषा तुम्हारी, नेह मुझ पर वारो ।

सम्मोहन सा बंधन, ये अनजानी सी डगर

कहाँ इसकी मंजिल, है किसको खबर ।

दिल में बसाये जाते हो किधर

कुछ तो बोलो , जरा आओ इधर ।

ये प्रेम पगडण्डी, चलना इस पर भारी

नहीं है सरल, है तलवार दोधारी ।

मेरी रह-गुजर पर , यो दौड़े चले आये

हथेली पर रख कर दिल, नजराना लिए आये।

Monday, February 1, 2010

शुभिच्छा

दूर डाल की फुनगी पर
कोयल ने छेड़ा एक गीत
स्वीकार बधाई हो मेरी
सखा मेरे, मय प्रीत ।

कस्तूरी से तुम महको
जीवन की मरू भूमि में
संतोष प्राप्त कर, अमर रहो
सुख दुःख की लुका छिपी में ।

खूब फलो, आगे बढ़ो
बस, कर्मठता ही गुण है
ईमान, सहोदर रहे तुम्हारा
यही सर्वदा सदगुण है ।

दूज चंद्रमा से तुम शीतल
सबकी आँखिन में बसते हो
अखंड दीप से , तुम रोशन
पर, दंभ नहीं तुम भरते हो ।

तरुवर ज्यों , लदा कंद से
नतमस्तक हो कहता है
सुस्ताओ दो पल, छाँव में मेरी
क्षुधा शांत भी करता है ।

मीठे पानी के निर्झर से
कल कल करके बहते हो
मंशाएं बलवती रहे तुम्हारी
जिसकी आस को पाला करते हो ।

लाभ कमाओ , यश बढे
उम्मीद बकाया न रहे
महालक्ष्मी और सरस्वती
दोनों पहलू में रहे ।

न दू में एक पुष्पगुच्छ
न कोई और उपहार
चिरायु यौवन रहे तुम्हारा
अक्षय , सदाबहार ।

Monday, January 18, 2010

कासे कहूँ

लिखने जो बैठे , अक्षर धुंधला गए
क्या लिखें, किस पर लिखें
हम ये धोखा खा गए ।

भाव कुछ आता नहीं
ठेंगा दिखाती है लेखनी
पेपर भी है मायूस
मेरी जुबानी ये मेरी कहानी ।

शर्मिंदा हों किस किस पर
खुद पर या जज्बातों पर
जो न रह सके खामोश
लरजकर लबों पर आ गए ।

न थे तुम ऐसे
न कभी सोचा था हमने
कैसा तूफान था, कि
शराफत छोड़ दी हमने ।

चल रहा अंतर में द्वन्द
पूरे दिन और रात है
खुद की है खुद से लड़ाई
जीत खुद की और खुद ही की हार है ।

इसका प्रायश्चित करें कैसे
जो हमने , निज तज भूल की
समेटे अपने डैनों को , कि
मुक्त उड़ने की भूल की ।

नादाँ इतने भी नहीं थे हम
जो मन को पढ़ न पाए हम
हुई है हमसे गुस्ताखी
कि माफ़ खुद को कर पाएंगे हम ।

Thursday, January 14, 2010

जन्मदिन मुबारक

शुभ प्रभात , शुभ बेला
आज का दिन कितना अलबेला
आज तुम्हारी सालगिरह
है लगा दुआओं का मेला ।

सब कहते हैं, खूब जियो
आगे बढ़ो , बढ़ते चलो
दिन दुनी, रात चौगुनी
कामयाबी हासिल करो ।

अनगिनत आयें वसंत
इस जीवन की फुलवारी में
पतझड़ से न हो नाता
सदाबहार की क्यारी में ।

दिन खिलें पलाश
रातें रातरानी सी महके
भोर हो इन्द्रधनुष सा
शामें रंगीन सितारों सी बहके ।

दुःख का कोई भी कतरा
तुम्हे छू न जाये
सुख का सावन सदा
रिमझिम रिमझिम बरसाए ।

यादों की बारात लिए
तुम आगे बढ़ते जाना
गर मिले , कहीं सुस्ताना
पीछे मुड़कर , एक नजर देखते जाना ।

हम होंगे कहीं पर
दूर खड़े, राह तुम्हारी तकते से
तुम खड़े शिखर पर, और
हम सजदा करते से ।

Tuesday, January 5, 2010

ऑफिसर

अफसर एक ऐसा मैंने देखा
जैसा न तुमने , न हमने देखा
प्रथम दिन जो उठाई शपथ
कसम थी निभाए उसे अंत तक ।

काम ही काम, बस कुछ न सुझाये
नियम के पक्के, काम ही भाये
आये थे बाबू , अफसर ही जायेंगे
उनके काम के सब गुण ही गायेंगे ।

आते ही काम, दिन भर बस काम
घर और दफ्तर , काम ही काम
है साथी बनीं , बस यही फाईलें
गहराया हुनर जिनमें , है फाईलें ।

हैं सरकारी अफसर , न आराम धुन लागी
उनको तो थी बस, काम धुन लागी
न उम्र का तकाजा , न अपना स्टेटस देखा
देखा तो बस, बैठक का एजेंडा देखा ।

दफ्तर में हो रेशो , शतप्रतिशत
इसके आलावा चाहे जीरो प्रतिशत
ये था उनका डिवोशन ,थी उनकी ये मेहनत
शिखर पर ले गयी , उनकी ये फितरत ।

सर्दी

कोहरे के आलिंगन में
है भोर ने आँखे खोली
चारों ओर देख कुहासा
न निकली उसकी बोली ।

सरजू भैया मिलें कहीं
तो उनसे सब बोलो
क्यों ओढ़े हो बर्फ रजाई
अब तो आंखे खोलो ।

दर्शन दो, हे आदित्य
जन जीवन क्यों ठहराया है
जड़ चेतन सब कंपकंपा रहे
कैसा कहर बरपाया है ।

नरम धूप का वह टुकड़ा
गुनगुनी सी कितनी भली लगे
फैला दो अपना उजास
चराचर को भी गति मिले

करूँ किसको मैं नमस्कार
तुम तो बस छिपकर बैठे हो
करूँ किसको अर्ध्य अर्पण
तुम तो बस रूठे बैठे हो ।

रक्त जम गया है नस में
पल्लव भी मुरझाया है
डोर खींच ली जीवन की
निर्धन का हांड कंपाया है ।

इस मौसम में एक सहारा
बस अमृत का प्याला
लबालब जिसमें 'चाय' भरी
हो साकी, कोई पीने वाला ।