Saturday, August 28, 2010

अंकुर की चाह

मिटटी
कुछ कहती नहीं
बस रखती है
अपने भीतर
छुपा के
सृजना का गुर ।

अंकुरित
करती है
नव जीवन
जड़ों से
रखती है
थामे पृथ्वी को ।


धैर्य है
उसकी परिभाषा
और सहनशीलता
आभूषण है
सोख लेती है
पानी
बाढ़
अपने भीतर
और खुद को
बना लेती है
और भी अधिक
उर्वर ।

मिटटी
हो तुम
बनने दो मुझे
ए़क अंकुर
जो फूटे
भीतर से
तुम्हारे
और जिसकी जड़े
शाश्वत हो जाएँ
तुम्हारे अंतस में ।

8 comments:

  1. काश मिट्टी होने से पहले मिट्टी होने का एहसास सबको प्राप्‍त हो सके तो अहं कहॉं रहे। मिट्टी तो बस आग़ोश में ले लेती है हर बीज को और उसे अंकुरित होने से मिट्टी हो जाने तक हरदम भरसक प्रयास करती है उसे पोषण देने का। मिट्टी ने कब भेद किया कि बीज किस जाति, धर्म, रंग, नस्‍ल या प्रवृत्ति का है। मिट्टी तो बस मिट्टी होती है।

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  2. ठीक कविता है -पर अंत से मैं सहमत नहीं हूँ .

    मिटटी
    हो तुम
    बनने दो मुझे
    ए़क अंकुर
    जो फूटे
    भीतर से
    तुम्हारे
    और जिसकी जड़े
    शाश्वत हो जाएँ
    तुम्हारे अंतस में ।

    ...बिना बीज के अंकुर कैसे फूटेगा ?कौन मैं है और कौन तुम --कम से कम मैं तो नहीं समझ पाया .

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  3. मिट्टी कहती है अपने प्रस्फुटित जीवन से , अपने ममत्व के बारे में, अपने गतिमान स्वरुप के बारे में और सृजन का सन्देश देती है ...बीज का अस्तित्व मिट्टी से ही जुड़ा है....

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  4. मिटटी में और स्त्री में कोई फर्क है ? नहीं ना ...दोनों सृजन करती हैं अपने ममत्व से जीवन प्रस्फुटित करती हैं और विकास करती हैं.

    सुंदर रचना .

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  5. अंकुर में जियेगा एक नयापन।

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  6. मिटटी
    हो तुम
    बनने दो मुझे
    ए़क अंकुर
    जो फूटे
    भीतर से
    तुम्हारे
    और जिसकी जड़े
    शाश्वत हो जाएँ
    तुम्हारे अंतस में ।
    namaskar !
    ek baat kahan chahuga ki thoda aur sudhar ho sakta hai kavita me , meri nazar me . shesh kavi behtar jaanta hai .
    sadhuwad.

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  7. धरती और बीज के सहारे आप सबको एक शास्वत एवं चिरंतन सत्य से अवगत करा गईं .सुंदर सोच से बाहर आती रचना.

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