Thursday, July 22, 2010

ओस

गिरा गगन से जल मोती
जमीं पे आके मिला फूल से
फूल ने पहले पंख बिठाया
फिर अपने उर कंठ लगाया






दोनों मिल बतियाने लगे
मंद मंद मुस्काने लगे
ओस ढुलक गई धीरे से
साथ छूट गया हीरे से

अरुणिमा पूरब में लहराए
धीमे बहती ठंडी हवाएं
खिला कुसुम मध्यम मुस्काए
उस पर ओस की बूंदे छाये

कब तक जी पायेगी बूँद
पत्ते के आलिंगन में
बस चुकी है कब की
मेरे ही व्याकुल मन में

पल भर को सजना
शरमाई शबनम की तरह
एक ही क्षण में बिखरना
ठुकराई दुल्हन की तरह

कब तक यूं ही चलेगा
सजना और बिखरना
कभी ऐसा भी होगा
सिर्फ उनके लिए संवरना

पंखुरियों पर प्यार जताना
ओस के दर्पण में तुम आना
मेरे जीवन की है आकांक्षा
निर्मल बूंदों की करूँ प्रतीक्षा

7 comments:

  1. ओस की शीतलता व ताज़गी है आपकी कविता में।

    ReplyDelete
  2. पल भर को सजना
    शरमाई शबनम की तरह
    एक ही क्षण में बिखरना
    ठुकराई दुल्हन की तरह
    अद्भुत!

    ReplyDelete
  3. पंखुरियों पर प्यार जताना
    ओस के दर्पण में तुम आना
    बहुत खूबसूरत .. प्रकृति के बहुत करीब

    ReplyDelete
  4. बेहद ख़ूबसूरत और उम्दा

    प्रकृति के बहुत करीब

    ReplyDelete
  5. ओस की बूंद का सुख्स्मता से अध्यन किया है और अच्छा बिम्ब भी रचा है !

    ReplyDelete