Monday, April 23, 2012

यशोधरा

(ख्यातिप्राप्त चित्रकार मंजीत सिंह जी का चित्र वियोगिनी यशोधरा -साभार  )

यशोधरा सी एक नारी
बनी कुंवर  की वामांगी
महलों की थी राजदुलारी
आज बनी विरह की मारी

फूलों का गलियारा चलते
कदम जहाँ थक जाते थे
सारे सुख  वैभव मंडराते
राहों में बिछ जाते थे

कामदेव सा पुरुष मिला
सिद्धार्थ नाम कहाते थे
राजप्रसाद में पुष्प खिला
सब बलिहारी जाते थे

नाजों के पाले हुए कुमार
देखी न दुःख की छाया
जर्जर देह न दिखा बुखार
वैभव की कुछ ऐसी माया 

लचक लता सी महारानी 
अहोभाग्य मनाती  थी
विधना के मन की न जानी
फूलों की सेज सजाती थी

पति था उसका एक संत
जग को उसने सन्देश दिया
सारे सुखों का दिखा पंथ
मानवता पर उपकार विशेष किया

धन्य हुआ सारा संसार
गुणगान बुद्ध के हैं गाते
रनिवास में गूंगी हुई झंकार
सूखे पत्ते उड़  हैं आते .   

Wednesday, April 11, 2012

रिश्ते




फुर्सत के कुछ लम्हों में
मन करता चिंतन मनन
रिश्तों ने जकड़ा पाश में
अवरुद्ध किया है दूर गमन

क्या ही अच्छा रहता
स्वछंद विचरता हर प्राणी
भूख नहीं न भूखा होता
याचक नहीं न रहता दानी

भौतिक सुख के उपादान
संचय क्या करता हठी
नचा रहा सुर सुन्दर गान
ऊँगली पर अपनी सदा नटी

कच्चे धागे से बंध आये
द्रौपदी की लाज बचाने
रेशम डोर से न बच पाए
चाहे व्यस्त हों रास रचाने

ममता का अदृश्य बंधन
जग में सबसे हुआ महान
रिश्तों का महीन मंथन
सब सुखों की बना खदान

नाता एक अनोखा सा
मानवता से मानव का
पशु पक्षियों को भाता सा
करुणा ममता और दया का

कुछ विचित्र सा सम्मोहन
कविता का है भावों से
शब्दों का सजा के तोरण
लयबद्ध रागमय छंदों से.