Thursday, October 27, 2016



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अँधेरा 


अमावस की वो 
काली रात थी 
पर किस्मत जो 
मेरे साथ थी 

घेरे था मुझे 
घुप्प  अँधेरा 
जैसे न होगा 
कभी सवेरा 

गहन तिमिर था 
दोनों बाँहे पसारे 
अनजान बहुत था 
होगा सूरज ओसारे

कोठरी काजल की 
ढेर सी स्याही 
सजे जिन नैनों में 
लगती कितनी प्यारी 

रात थी अँधेरी 
थोड़ी सी लम्बी 
क्या न कटेगी 
लगती थी  दम्भी 

इतने में आई 
बाती  की एक किरन 
सिमटा था तिमिर 
माथे पर न शिकन 

अँधेरा जीता नहीं
पर दे गया बहुत
शाम बीती नहीं 
आऊंगा लौट खुद 

घबराना नहीं तुम 
जाता हूँ दे हौसला 
उजियारा हैं तुम्हीं में 
भरना इसी से घोंसला .