Thursday, March 11, 2010

सृजन के बीज

अपने आँगन की क्यारी में
बीज सृजन के मैंने बोये
गर्भ गृह में समा गया क्या
सोच सोच कर मन रोये ।

एक सुबह देखा मैंने
पाषाण धरा को चीर
बाती सा एक अंकुर
मुस्काया, हरी मेरी पीर ।

मैं रोज सींचती ममता से
था उल्लास नहीं खोया
सर सर समीर झुलाती उसको
जैसे अबोध शिशु हो सोया ।

आस थी कब पल्लवित होगा
कब आयेंगे उस पर फल
मेरे हर्ष का पार न होगा
मेरी सृजना हो जाये सफल ।

कैसा था वह सुखद प्रभात
जब कली ने आँखें खोली
दुलराती उसको देख देख
इतराई मैं, वह थी अलबेली ।

अंतर में कितने पराग लिए
इसका उसको भान ना था
साथ में थे मेरे सपने
उसे जरा अभिमान ना था ।

पुष्प खिला उपहार मिला
मेरे जीवन में आया वसंत
तितली बोले, मधुकर डोले
आम्र बौर कितनी पसंद ।

किसको दूं यह कुसुम सुगन्धित
खुशबू जिसमे रच बस जाए
डाली से कोई दूर ना हो
इच्छा, यहीं अमर हो जाए ।

8 comments:

  1. अपने आँगन की क्यारी में
    बीज सृजन के मैंने बोये
    गर्भ गृह में समा गया क्या
    सोच सोच कर मन रोये ।
    aapki hr kavita tarif-e-kabil hoti hai.bahut hi sunder rachna.........

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  2. कैसा था वह सुखद प्रभात
    जब कली ने आँखें खोली.....
    सच अपना विश्वास उस दिन इठलाने लगता है, सुबह, फूल सब अपना प्राप्य नज़र आते हैं,
    बहुत ही खूबसूरत एहसास

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  3. वाह ब्‍लाग पर तस्‍वीर तो आपने अच्‍छी डाली है, कविता भी अच्‍छी लगी सरल भाव हैं ,भाषा पर पकड आते आते आ जाएगी

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  4. सर्जना के विकशित होते पल और उससे जुडी संवेदनाएं , जीवन के बदलते हर-पल,हर- क्षण के साथ आशा और निराशा के द्वन्द से उपजता आनंद शाश्वत और चिरंतन है और आपकी कविता ने उसको पूरी तरह जिया है.

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  5. srijan ka ye sunder sukhad ahsah kan-kan man me samata hai aur man ko samporn bhar deta hai,sunder bhav.

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  6. आस थी कब पल्लवित होगा
    कब आयेंगे उस पर फल
    मेरे हर्ष का पार न होगा
    मेरी सृजना हो जाये सफल ।

    bahut umda rachna hai, with lot of innocence and purety..

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  7. सृजन का यह बीज यूँ ही अंकुरित होता रहे
    सुन्दर रचना

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  8. सृजन का घटनाचक्र बहुत बखूबी समझाया है

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