Monday, September 20, 2010

विकल्प

तीसों पहर सोच में बीते
सपना कैसे होगा साकार
किया था वादा दिन बीते
कैसे लेगा वह आकार ।

प्रयास समर्थता से बढ़कर
इष्टदेव को साथ लिए
बनूँ मैं उनका अवलंबन
ले हाथों में हाथ लिए ।

लोचन झिलमिल से भर जाए
आकाश सिमट आये आँचल में
धरा भी फूली नहीं समाये
स्फुटित हो नीलकमल मन में ।

देने को अनुपम उपहार
जैसा किसी ने दिया न हो
हर लेने को हर अवसाद
ऐसा किसी ने हरा न हो ।

होते हैं विरले तुम जैसे
औरों की ख़ुशी में जीते हैं
तजकर अपने निज सुख को
बन नीलकंठ विष पीते हैं ।

अतुल्य अनूठे अलग से हो
उपमा मैं तुम्हारी दूं किससे
विकल्प न कोई तुम्हारा हो
छवि मात्र तुम्हारी हो जिसमें ।

6 comments:

  1. मन में उठाते हुए उद्वेग को बखूबी शब्द दिए हैं ...

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  2. वाह वाह ………………बहुत सुन्दर भाव संग्रह्।

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  3. बहुत खूबसूरत ..अच्छी प्रस्तुति

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  4. बेहतरीन रचना...क्या बात है...लाजवाब...

    नीरज

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