Saturday, July 10, 2010

मन का आँगन

मेरे मन के आँगन में
बीज प्रीत का रोपा मैंने
भीने भाव की नमी दी उसमें
दिव्य कुसुम सा पाया मैंने.

स्वर्णिम स्वप्नों से सहलाती
कैसा होगा यह सुंदर मेल
लरज लरजकर बतियाती
पुष्पों से लदी सुवासित बेल .

घर के हर कोने में फैली
कितना लाड लड़ाती है
मुझे दूर न कर पाओगे
गर्वित हो कह जाती है .

ज्योत्स्ना इसकी कण कण में
कुछ तीव्र गति है बढने की
खुश्बू इसकी रोम रोम में
हठयोगी नहीं कुछ घटने की .

अपार हर्ष हो या अवसाद
कहती है मैं साथ तेरे
मुझसे कह दो तो घटे विषाद
फटके न कभी यह पास तेरे .

चंदा की चटक चांदनी सी
मुस्काती भली सी लगती हो
कभी न ग्रहण हो तुम पर
सकुचाती रेशम लगती हो .

जब गुजरो इस राह से बालम
आँगन में मेरे सुस्ता लेना
कुछ शोख लताएँ अमरप्रेम की
संग अंग में रख लेना .

4 comments:

  1. यह प्रीत की बेल पल्लवित हो...सुन्दर रचना

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  2. हरा भरा जगमग रहे मन का आँगन ...
    प्रीत से ऐसे ही मुस्कुराता ...

    मीठी -मीठी सुन्दर सी कविता ..!

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  3. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति के साथ ही एक सशक्त सन्देश भी है इस रचना में।

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  4. "जब गुजरो इस राह से बालम
    आँगन में मेरे सुस्ता लेना
    कुछ शोख लताएँ अमरप्रेम की
    संग अंग में रख लेना . "
    मन के आँगन में कितने अपनेपन से आमंत्रण है ... इस आँगन में ख़ुशी सदा बसे ... प्रेम सदा बसे... यही कामना है ...

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