जीवन में है गति प्रखर
गतिमान हो बढते जाना है
टेढ़े रस्ते कुछ कठिन डगर
लक्ष्य लक्ष्य को पाना है ।
हमराही मिलते हैं कितने
कुछ दूर चले फिर छूट गए
अनजान सफ़र ठांव इतने
क्यों ठहरे सपने टूट गए ।
मैं चला अकेला अलबेला
संग तुम्हारी याद लिए
तपती मुश्किल राहों पर
शीतल सी तुम्हारी छवि लिए ।
अँधेरे और असमतल पथ पर
सहज हो मैं बढ़ जाता हूँ
दीपशिखा सी आगे चलती
सम्मोहित सा पीछे आता हूँ ।
साथ बिताये दुर्लभ पल
सौगात मेरी है पूँजी प्रिय
संजीवनी सी बहती अविरल
जीऊँ सरस तुम संग प्रिय ।
वामांगी बन रहो मेरी
नहीं विधाता ने चाहा
बनकर अखंड ज्योति मेरी
प्रकाशित मन में मैंने चाहा ।
बहुत सुन्दर रचना है दोस्त !
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है!
ReplyDeleteमध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल, मनोज कुमार,द्वारा राजभाषा पर पधारें
दीपशिखा बन चलो, हृदय की दृष्टि तुम्हें पहचान रही,
ReplyDeleteमेरे पग पथ में सध जाते, भावों की नद बन प्राण बही।
बहुत सधा हुआ लिखते है आप... लिखते रहिये ...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeletejisko saath leye chal rahi hoo hamesha ase hee saath chalte rahe or ase he likhte rahe
ReplyDeleteतपती मुश्किल राहों पर
ReplyDeleteशीतल सी तुम्हारी छवि लिए ।
सुन्दर रचना
साथ बिताये दुर्लभ पल
ReplyDeleteसौगात मेरी है पूँजी प्रिय
संजीवनी सी बहती अविरल
जीऊँ सरस तुम संग प्रिय ।
bahut khoob
Padhte waqt laga " are ye to mere hi dil ke bhav hain, mere bhav"
ReplyDeleteसुन्दर भावों से पूर्ण लेख
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