Wednesday, September 29, 2010

दीपशिखा

जीवन में है गति प्रखर
गतिमान हो बढते जाना है
टेढ़े रस्ते कुछ कठिन डगर
लक्ष्य लक्ष्य को पाना है ।

हमराही मिलते हैं कितने
कुछ दूर चले फिर छूट गए
अनजान सफ़र ठांव इतने
क्यों ठहरे सपने टूट गए ।

मैं चला अकेला अलबेला
संग तुम्हारी याद लिए
तपती मुश्किल राहों पर
शीतल सी तुम्हारी छवि लिए ।

अँधेरे और असमतल पथ पर
सहज हो मैं बढ़ जाता हूँ
दीपशिखा सी आगे चलती
सम्मोहित सा पीछे आता हूँ ।

साथ बिताये दुर्लभ पल
सौगात मेरी है पूँजी प्रिय
संजीवनी सी बहती अविरल
जीऊँ सरस तुम संग प्रिय ।

वामांगी बन रहो मेरी
नहीं विधाता ने चाहा
बनकर अखंड ज्योति मेरी
प्रकाशित मन में मैंने चाहा ।

10 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना है दोस्त !

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  2. बहुत अच्छी प्रस्तुति। भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है!
    मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल, मनोज कुमार,द्वारा राजभाषा पर पधारें

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  3. दीपशिखा बन चलो, हृदय की दृष्टि तुम्हें पहचान रही,
    मेरे पग पथ में सध जाते, भावों की नद बन प्राण बही।

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  4. बहुत सधा हुआ लिखते है आप... लिखते रहिये ...

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  5. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति।

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  6. jisko saath leye chal rahi hoo hamesha ase hee saath chalte rahe or ase he likhte rahe

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  7. तपती मुश्किल राहों पर
    शीतल सी तुम्हारी छवि लिए ।
    सुन्दर रचना

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  8. साथ बिताये दुर्लभ पल
    सौगात मेरी है पूँजी प्रिय
    संजीवनी सी बहती अविरल
    जीऊँ सरस तुम संग प्रिय ।

    bahut khoob

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  9. Padhte waqt laga " are ye to mere hi dil ke bhav hain, mere bhav"

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  10. सुन्दर भावों से पूर्ण लेख

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