Sunday, July 4, 2010

परदेस

सर्र सर्र बहती पुरवाई
चैन जिया का ले भागी
सूना जीवन सूना आँगन
मैं तो रह गई ठगी ठगी .

झूठी प्रीत लगा के मुझसे
पिया छोड़ गए परदेस
सरस सरोवर डूब गई मैं
आया न कोई सन्देश .

सारी रतिया जाग जाग
उनके विरह में काटी
प्रेम की प्यासी दर-दर भटकूँ
कैसे मैं जिऊँ अभागी .

अपना आँगन जान से प्यारा
अब लगे पराया देश
साजन आ भी जाओ
किसी विधि रखकर कोई भेस .

याद तुम्हारी बड़ी सताती
मन को घायल कर जाती
भोर भए पनघट पर
मोरी गगरी छलकत जाती .

तरस गई हैं प्यासी अँखियाँ
तुमसे मिलने की आस में
लगन लगी तेरे नाम की मुझको
जिऊँ दर्शन की आस में .

10 comments:

  1. याद तुम्हारी बड़ी सताती
    मन को घायल कर जाती
    भोर भए पनघट पर
    मोरी गगरी छलकत जाती .

    तरस गई हैं प्यासी अँखियाँ
    तुमसे मिलने की आस में
    लगन लगी तेरे नाम की मुझको
    जिऊँ दर्शन की आस में .

    विरह व्यथा का विस्तृत वर्णन

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  2. सारी रतिया जाग जाग
    उनके विरह में काटी
    प्रेम की प्यासी दर-दर भटकूँ
    कैसे मैं जिऊँ अभागी .

    VIRAH AUR PREM KE BHAV KO BAHUT HE SUNDAR ROOP DE KAR PRASTUT KIYA GAYA HAI...

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  3. सार्थक प्रयास - शुभकामनाएं

    "सरस सरोवर डूब गई मैं"

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  4. सुन्दर चित्रण!

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  5. विरह का भी अपना मजा है... सो इसे सहन करना चाहिए.
    बेहद उम्दा रचना.

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  6. याद तुम्हारी बड़ी सताती
    मन को घायल कर जाती
    भोर भए पनघट पर
    मोरी गगरी छलकत जाती ..

    विरह में ये बरखा और तरसाती है .... उम्दा रचना है ..

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  7. वाह !! एक अलग अंदाज़ कि रचना ......बहुत खूब

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  8. इस देश में हजारों पत्नियाँ ... प्रेमिकाएं अपने पति, प्रेमी से अलग रहती हैं... वर्षों उनका इन्तजार करती हैं... अपना नेह.. प्रेम सब कुछ संजो कर रखती हैं.. उनके दर्द को कहाँ कोई समझ सका आज तक... अपने ही देश में विस्थापित सा जीवन जीने वाले और इन्तजार करती युवतियों के दर्द का अत्यंत मर्मान्तक चित्रण है आपकी इस कविता में.. सुंदर रचना !

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