Monday, July 19, 2010

भाग रहे हैं हम

तेज चलती गाड़ी
से देखो बाहर
भाग रहे होते हैं
खेत खलिहान
पेड़ पौधे
नदी तालाब
पहाड़ और
इन्तजार कर रही लड़की
जैसे छूटी जाती है
स्मृति
अपनी दुनिया की
बस भाग रहे हैं हम ।

आगे कहाँ
भागे जा रहे हैं हम
नहीं पता मुझे
अपने गावं परिवेश
सभ्यता संस्कृति
जड़ों से दूर होते हम
भाग रहे हैं हम ।

आज की
तेज रफ़्तार जिन्दगी में
दौड़ रहे हैं हम
छोड़कर
अपने अपनों को
जीवन मूल्यों को
सावन के झूलों को
भाग रहे हैं हम ।

एक दूसरे से आगे
निकल जाने की होड़ में
आगे वाले को
रौंद देना चाहते हैं हम
भूलकर नैतिकता
मिटाकर मानवता
हटाकर शिष्टाचार
बस भाग रहे हैं हम ।

7 comments:

  1. और भागते भागते थक जायेंगे स्वयं से ही।

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  2. दौड़ रहे हैं, भाग रहे हैं
    सोये हैं या जाग रहे हैं।
    पथ की सुंदरता न देखकर सब के सब भाग रहे हैं,क्‍यूँ कहॉं? किसी को पता नहीं, शायद आपकी कविता किसी को जगा पाये।

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  3. गहराई से लिखी गयी एक सुंदर रचना...

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  4. पर ये खेत खलिहान , सूरज, चाँद... गाडी की रफ़्तार में भाग रहे, पर हम ? जाने किस प्राप्य की होड़ है, जबकि मृत्यु तय है

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  5. arun ji ...
    hame lagta hai ki hum ek dosre se aage daur rahe hai .....per shayad hum sab ek circle mein hi daur rahe hai......isliye aage peeche koi nahi.....
    jaha se safer shuru hua wahi per aaker ant hai....

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  6. आज हम सभी भाग रहे हैं.. बिना लक्ष्य के बिना विजन के ... आज के परिपेक्ष्य में सार्थक रचना ! भागती गाडी का बिम्ब अच्छा है

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