सोनचिरैया हूँ मैं तुम्हारी
पुचकार के दाना डालो
नहीं चुगु मैं हीरे मानिक
प्रेम के मोती डालो ।
हृदय पिंजर में कैद यहाँ
सोच सोच व्याकुल हूँ
द्वार खुला क्यों छोड़ गए तुम
देख देख आकुल हूँ ।
पंख पसारूं दूर गगन में
या रहूँ यहीं बंदिनी बनकर
उन्मुक्त व्योम में भरू उड़ान
या रहूँ तुम्हारी हंसिनी बनकर ।
हूँ सोने के बंदीगृह में
मन चाहे स्वछन्द उड़ान
प्रेम के मोती चुग ले हंसा
रह जायेगा मेरा मान ।
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"पंख पसारूं दूर गगन में
ReplyDeleteया रहूँ यहीं बंदिनी बनकर
उन्मुक्त व्योम में भरू उड़ान
या रहूँ तुम्हारी कादम्बिनी बनकर ।"
jab se aapke blog par aayha hoon aapki kavitaaon ka intjar rehta hai. abhi abhi aapki taji kaivta padhkar aisa laga jyon mahadevi ji ki kisi sangrah ki kavita ho!
naari man ke bhav ko padhne ki kala aapme bhari hai...
hu sone ke bandi grih me ....
ReplyDeletekathin kasak hai bhavon me.
WAAH...WAAH...WAAH....
ReplyDeleteBAHUT HI SUNDAR...