Monday, July 26, 2010

विरह के ताप

व्याकुल है जग सारा
ठौर नहीं है घन दल का
मेरा मन भी तड़प रहा
सन्देश न आया साजन का ।

बदरा आये बौछार न आई
घुमड़ घुमड़ लौटे बौराए
कोई तो उनको रोके पूछे
प्यासी धरती से क्यों रूठे ।

तुम्हारी आस में रहते सब
सूनी सूनी मेरी गलियां
आकर बरस भी जाओ अब
भर आई हैं मेरी अंखियाँ ।

सूना सावन सूनी रैना
झूलों का संगीत है सूना
रिमझिम की झड़ी उदास
इन्द्रधनुष में नहीं उजास ।

मतवाले बादल मस्ती में
हवा बावरी टिकने ने दे
अमृत छलकाते तुम आना
पी के देस बरस जाना ।

देख जो पाऊं मैं उनको
व्यथित मन को आये करार
उमड़ते कजरारे मेघा
बरस भी जाओ मूसलाधार ।

प्यास बुझाते हो सबकी
नेह वृष्टि हम पर कर दो
शांत हों विरह के ताप
रसमय शीतलता भर दो ।

6 comments:

  1. प्रकृति के माध्यम से मन के भावों को मूर्त रूप देती सुन्दर रचना.

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  2. विरह और प्रकृति के माध्यमों का पुराना सम्बन्ध रहा है। कोई न कोई आपकी बात मन तक पहुँचा ही देगा।

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  3. बहुत सुंदर भाव युक्त कविता

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  4. अच्छा है कभी इंतजार के भ्रम में भी रहना. वरन आज कल तो कोई किसी का इंतजार नहीं करता

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