लहरें उतरी आसमान से
कहती हैं सब है मेरा
धीर धरा या नीला नभ
इन सबको हमने है घेरा .
कैसे रूखे रह पाओगे
जीवन प्राण मैं भर दूँगी
अतृप्त रहे न कोई जगत में
तृप्त मैं सबको कर दूँगी .
नदी नाप ले गहराई
पोखर देखे अपनी ऊंचाई
धरती सोख रही है मुझको
देने को अपनी तरुणाई .
दोनों हाथ उलीच रही मैं
भर लो अपना घर आँगन
पुरवाई संग लौट गई तो
रीता न रह जाए उनका मन .
धो दूं सब मन का कलुष
नहला दूं सृष्टि सारी
हरी ओढ़नी पहना दूं
या महका दूं रंगों की क्यारी .
प्रतीक्षा मैं है इन्द्रधनुष
कब खुद पर इतराएगा
बदरा मितवा जब देंगे मौका
सतरंगी छटा दिखायेगा .
मैं आई बड़ी आतुर सी
है सारा जग छाप लिया
बाहर भीतर शीतल कर दूं
तुमने जो मुझको याद किया .
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दोनों हाथ उलीच रही मैं
ReplyDeleteभर लो अपना घर आँगन
पुरवाई संग लौट गई तो
रीता न रह जाए उनका मन .
bahut gahree bhawnayen
एक अदम्य जिजीविषा का भाव कविता में इस भाव की अभिव्यक्ति हुई है।
ReplyDeleteइसकी प्यासी कब से धरती।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति के साथ ही एक सशक्त सन्देश भी है इस रचना में।
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