Saturday, March 6, 2010

प्रभु बसे मन माहीं


कान्हा की रुकमन ना थी
राधा जैसी ताब कहाँ
धन्य कहूँ मैं अपने को
यदि मीरा जैसी भी बात यहाँ ।

अपने गिरधर के रंग में
रंग जाऊ यदि मीरा जैसी
कोई रंग ना दूजा चढ़ने पाए
कृष्ण दीवानी मीरा जैसी ।

रोम रोम में पगे कन्हैया
ह्रदय बसे हैं रास रचैया
नाम पर उनके सब सुख छोड़ा
एक चितचोर से नाता जोड़ा ।

अब तो बस एक आस बची है
दर्शन कब देंगे तारणहार
स्वपन में आकर, झलक दिखाकर
कहाँ गए वो पालनहार ।

झीनी झीनी सी प्रेम चदरिया
मीरा ने अंग डारी
बंसीधर को घर- वन ढूंढे
प्रियवर बसे मन माहीं ।

3 comments:

  1. "झीनी झीनी सी प्रेम चदरिया
    मीरा ने अंग डारी
    बंसीधर को घर- वन ढूंढे
    प्रियवर बसे मन माहीं ।"
    meera aur apne prem ki sunder tumlan... shabdon ko bade sunder tareeke se sajaya hai aapne..bas chauthe paragraph me thoda bhatak gai hai kavita... shayad prem me koi confusion aa gaya tha... unhe dobara likh le...

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  2. अद्भुत प्रेम का समर्पण भाव

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  3. रोम रोम में पगे कन्हैया
    ह्रदय बसे हैं रास रचैया
    kisi ki deewani ho jane ki chaht hi prem ki parakastha hai.eik ko purn samarpan aur astha ke saath apna kar sesh apne ko alag kar lena hi bhakti ki pahli sidhi hai. prem aur samarpan ki adbhut abhivyakti hai aapki rachna.

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