Saturday, July 24, 2010

बेटी हूँ मैं

धरती के गर्भ में
पहले समाती हूँ मैं
बड़ी होने से पहले
जड़ों से
उखाड़ दी जाती हूँ मैं
फिर कहीं
विस्थापित होती हूँ मैं
धान की पौध हूँ मैं
बेटी हूँ मैं ।

मेरे जनम पर
नहीं गाये जाते मंगलगीत
नहीं बांटी जाती मिठाइयाँ
माँ को मिलती हैं
ढेर सारी रुसवाइयां
क्योंकि बेटी हूँ मैं ।

मुझसे नहीं मिलेगा
इन्हें मोक्ष
नहीं चलेगा
इनका वंश
पर चलेगी
घर की चक्की
अतिथियों की सेवा टहल
छोटे भाई बहनों का पालन
क्षमता से ज्यादा
है मुझमें हिम्मत
आखिर बेटी हूँ मैं ।

जीवन की साँझ ढले
कंपकंपाते हाथ
जब होते हैं अकेले
नहीं आता कोई श्रवण
बूढी आँखें
जब करती हैं याचना
सहारे की
तब आगे आती हूँ मैं
कांवर उठाती हूँ मैं
सीने से लगाती हूँ मैं
वे मेरे पूजनीय हैं
जिगर का टुकड़ा हूँ मैं
उनकी बेटी हूँ मैं ।

9 comments:

  1. बेटी का मर्म बहुत ही खूबसूरती से कविता मे ढाला है…….………।बहुत सुन्दर भाव भरे हैं।

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  2. मर्मस्पर्शी व संवेदनशील। अपने देश की बेटियों पर हमको गर्व है।

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  3. एक संवेदनशील प्रस्तुति।

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  4. धान की पौध हूँ मैं
    बेटी हूँ मैं......

    बहुत सुन्दर संवेदनशील प्रस्तुति!

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  5. very touchable, but my dear di aab toh girl condition better hoo gayi hai.

    by the way mind blowing. :), :)

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  6. "मेरे जनम पर
    नहीं गाये जाते मंगलगीत"--nirash hone ki jaroorat nahi hai,samay ne apni disha badalani shuru kar di hai.Ab logo ko Bitiya achchi bhi aur sachchi bhi lagane lagi hai.Bas samay ko thoda samay dene ki jaroorat hai.

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  7. विस्थापित होती हूँ मैं
    धान की पौध हूँ मैं
    बेटी हूँ मैं ..

    बहुत मार्मिक ... बहुत ही संवेदनशील रचना है ... सच में बेटियों का जीवन ऐसा ही है .....

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  8. बेटी कि संवेदना को बहुत करीब से समझा है... बेटियों के विस्थापन को कहाँ समझ पाए हैं हम! सुंदर रचना के लिए बधाई ! कविता का प्रारंभ उत्क्रिस्ट है...

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