Monday, August 30, 2010

यादों की सलीब

दिल करता है इंतज़ार
कुछ इसको भी कह जाना
जाते हो बहुत दूर मुझसे
मन से दूर न जाना ।

झलक देखने को व्याकुल
दर्शन को तरसेंगी अँखियाँ
कहाँ मैं देखूं छवि तुम्हारी
सावन बरसेंगी अँखियाँ ।

रूप सुदर्शन सबको भाए
चन्दन मन शीतल कर जाए
मीठी बोली बरसाए सुधा
आँख खुले हो जाए विदा ।

हाथ छुडाये जाते हो
स्मृति छुड़ा न पाओगे
जब साथ रहेगी तन्हाई
याद बहुत तुम आओगे ।

दिन रैन बिताऊं पहलू में
नित सपने नव गढ़ते हैं
कैसे मैं खुद को समझाऊँ
तारे नहीं झोली भरते हैं ।

रातें नागिन दिन है पहाड़
हमें काटने हैं खुद ही
यादों की सूली पर चढ़ते
सलीब उठाये हैं खुद ही ।

8 comments:

  1. बहुत सुन्दर भावाव्यक्ति।

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  2. आपकी भाषिक संवेदना पाठक को आपकी आत्‍मीय दुनिया की सैर कराने में सक्षम है।
    कविता पाठके के मन को छू लेती है!

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  3. स्मृतियाँ नहीं छोड़ती हैं।

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  4. हाथ छुडाये जाते हो
    स्मृति छुड़ा न पाओगे
    जब साथ रहेगी तन्हाई
    याद बहुत तुम आओगे ...

    यादें यादें यादें ... सच है ये पीछा नही छोड़ती .... लाजवाब है रचना ...

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  5. दिन रैन बिताऊं पहलू में
    नित सपने नव गढ़ते हैं
    कैसे मैं खुद को समझाऊँ
    तारे नहीं झोली भरते हैं ।
    ==================
    बहुत खूब !
    बधाई !

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  6. बहुत ही अच्छी कविता लिखी ....अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगीं.

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  7. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति.

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  8. आप की रचना 03 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
    http://charchamanch.blogspot.com/2010/09/266.html


    आभार

    अनामिका

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