Sunday, August 1, 2010
सावन की झड़ी
बूंदों से बूंदों की होड़ बढ़ी
सावन की कैसे लगी झड़ी
धरा को मिला संपोषित नेह
खिली कोंपलें और तृप्त हुई .
खेतिहरों के माथे सिलवट धुली
बादलों ने जो उठाईं पलकें
जन जन के मन मिसरी घुली
गोरी की अँखियाँ भी छलके .
गगन से लेकर मेरे आँगन
कैसी सजी मोतियों की लड़ी
बैरी बदरा इतना न बरसो
सजना की आती है याद बड़ी .
मतवारे मेघा क्यों हो बौराए
मेरी सुनो तनिक ठहर जाओ
गए है मेरे पिया परदेस
उनकी अटरिया भी बरस आओ .
बीसों पहर झूमकर बरसो
तबहूँ न मोरा जियरा जुड़ाए
अबकी सावन जो लौटेंगे वो
तबहि धधकता कलेजा ठंडाये .
बरखा रानी ह्रदय में समाये
लौट भी जाओ न तडपाओ
अगले चौमासे फिर से आना
संग होंगे प्रियतम बरस के जाना .
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बहुत सुन्दर ....मित्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाये...
ReplyDeleteअगले चौमासे फिर से आना
ReplyDeleteसंग होंगे प्रियतम बरस के जाना .
बहुत बढिया
fule nahi samaye dharti pahan hari hari saaree re .......sawan ke din aaye
ReplyDeletekuchh had tak tookbandi hai.baaki theek hai
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना। बधाई।
ReplyDeleteवर्षा ऋतु का सुन्दर चित्रण।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति
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