Sunday, May 9, 2010

नीला नभ

नीला अम्बर नीलाम्बर का
है रस्ता सूरज चंदा का
दामन में जुगनू से तारे
चमचम करते कितने प्यारे ।

नीलाभ मनोहारी कितना
स्वर्ग सरीखा दिखता है
अनुपम सा इस पर इन्द्रधनुष
मुकुट रंगीला लगता है ।

बादल खेले आंखमिचौनी
सूरज संग हौले हौले
तेज हवा ने आँख दिखाई
बदरा उड़कर आगे हो ले ।

आशाओं की बदरी बन
जब मेघ बरसते हैं घनघोर
प्यासी पृथ्वी की प्यास बुझा
मुरझाये मन में उठे हिलोर ।

बतियाता संग चांदनी के
पक्षी संग गाता है गीत
साँझ ढले धरती संग मिलता
जैसे उसका हो मनमीत ।

8 comments:

  1. मन की पवित्रता का परिचय देती सुंदर कविता

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  2. इतनी सुन्दर और भाव पूर्ण कविता पर कम कमेन्ट मिलना दर्दनाक है.
    सादर,

    माणिक
    आकाशवाणी ,स्पिक मैके और अध्यापन से जुड़ाव
    अपनी माटी
    माणिकनामा

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  3. प्रकृति के विभिन्न उपादानों का कविता में बिम्ब के रूप में उत्तम प्रयोग।

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  4. एक बहुत ही सुंदर बाल-कविता...
    बच्चों के लिए कम ही लिखा जा रहा है...ऐसे में यह उम्मीद जगाती है...

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  5. सुंदर रचना .. अनुपम गीत है ... बहुत ही मधुर ...

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  6. आशाओं की बदरी बन
    जब मेघ बरसते हैं घनघोर
    प्यासी पृथ्वी की प्यास बुझा
    मुरझाये मन में उठे हिलोर ।
    aur hothon per machle koi dhun

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  7. वाह!!!!!!!!!!!!!!! बहुत सुन्दर भाव समर्पित किये है और भाषा पर जोर दार पकड़ है आपकी.प्रकृति का सुन्दर वर्णन आपकी ये पोस्ट देख मुझे मेरी पिछले सप्ताह कि पोस्ट याद आ गयी

    विस्तार

    मेरे नैनों के नीलाभ व्योम में,
    एक चन्दा, एक बदली और
    कुछ झिलमिल तारे रहते हैं.
    सावन में,
    जब घनघोर घटायें उमड़ घुमड़ कर,
    आँखों में खो जाती हैं.
    चन्दा, तारे सो जाते हैं.
    वर्षों मरु थे, जो पोखर सारे,
    स्वयमेव ही भर जाते हैं.
    कभी शीत बहे तो,
    चंदा, तारे ओढ़ दुशाला,
    लोचन में सो जाते हैं.
    दिग्भ्रमित हुए कुछ खग विहग.
    जब दृग में वासंत मनाते हैं.
    उषा किरण की रक्तिम डोरें,
    जाने अनजाने,
    नख में उलझाते जाते हैं.
    तब पलकों की झालर के कोनें ,
    आप ही खुल जाते हैं.
    ओस के मोती सरक - सरक कर,
    आंचल में भर जाते हैं.
    गर्मी की,
    तपती रातों में चख में खर उग आते हैं.
    भीष्म की सी शर शैय्या में,
    तब चंदा तारे अकुलाते हैं.
    जाने क्या कुछ खोया मैंने,
    ये झिलमिल तारे पाने को.
    पर सावन रहा सदा नयनों में,
    जाने क्यों मधुमास न आया.
    अम्बर रहा सदा अंखियों में,
    पर मैंने क्यों विस्तार न पाया!
    मैंने क्यों विस्तार न पाया!!

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  8. आशाओं की बदरी बन
    जब मेघ बरसते हैं घनघोर
    प्यासी पृथ्वी की प्यास बुझा
    मुरझाये मन में उठे हिलोर ।

    बहुत खूब...

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