Friday, October 1, 2010

रोना न आया

बीज समाया धरती में
अंकुर चाहे देखूं भोर
खींच ली निर्दयी ने
मेरे जीवन की डोर
सुगबुगाना भी न आया ।

सृष्टि के उपवन में
सुकोमल एक कली खिली
कोपल थी अपनी धुन में
किया विलग वो धूल मिली
कुनमुनाना भी न आया ।

कुछ और बरस बीते
उम्र थी देखू सपनों को
ऊँची उड़ान जगत जीते
निर्मोही क़तर गया पंखों को
पलक झपकाना भी न आया ।

मेरे हिस्से का आसमान
मेरी इच्छा बलवती पले
था किसी और का बागवान
सरका दी धरती पाँव तले
जरा डगमगाना भी न आया ।

आहट भेजी जब वसंत ने
फिर से मन बौराया
सपने बुने बावरे नैनों ने
उनका चटक रंग चुराया
फिर भी मुझे रोना न आया .