Sunday, August 1, 2010

मंजिलें

चल पड़े हैं सफ़र पर
रास्ता कुछ है नया
आशा का दीप लिए
लक्ष्य का क्या पता ।

राहें मिलती हैं नहीं
फासले बढते गए
हर कदम कहता सहम
थम लें ठहर दो कदम ।

अच्छा होता गुजर जाते
मोड़ से अनजान हम
बावरा ये मन भागता
न जाने है क्यों वहीँ ।

आईने से पूछूं भला क्या
जवाब कुछ देता नहीं
मालूम नहीं कुछ चल रहा
क्या रास्ता है यही सही ।

पाना है आकाशकुसुम
कठिन डगर है जाना
जाने कौन मिले हमराही
सपनों को है पाना ।

काली घटाओं के मध्य से
मुझे झांकता है कोई
मदभरे अधखुले नयनों से
मुझे झांकता है कोई ।

प्रयास बढाऊं मैं जितना
वह आगे बढती जाती है
गर तुम हो साथ मेरे
थोड़ी करीब आ जाती है ।

गहन कालिमा दिखती है
पर झिलमिल दूर नहीं है
थककर बैठ गए क्या साथी
अब मंजिल दूर नहीं है ।

4 comments:

  1. आशा का दीप लिए चलते रहें ...
    लक्ष्य का पता नहीं ...
    बस थक कर बैठना नहीं ...
    सुन्दर कविता ...!

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  2. एक कदम बस एक बार में,
    देखो मंजिल दूर नहीं।

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  3. "गहन कालिमा दिखती है
    पर झिलमिल दूर नहीं है
    थककर बैठ गए क्या साथी
    अब मंजिल दूर नहीं है ।"
    बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  4. सुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।

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