कच्ची मिटटी
तराशिये खुद को इस तरह
कि स्वयं पर नाज़ हो जाए
कोई और करे न करे
खुद ही से प्यार हो जाए |
खुदा भी हमसे जब पूछे
कि कौन है मुझसे रूबरू
भेजी थी कच्ची मिटटी मैंने
तराश कर किसने कलश बना दिया ?
इसमें भरा है पवित्र गंगाजल
करने को पावन, बुझाने को प्यास
मिटटी न मालूम क्या रूप लेगी
ये तय नहीं करती मिटटी |
ये तो कमाल है तराशने वाले
हाथ और स्थितिरूपी चाक का
थपकी प्यार की जिस दिशा में
वही आकार पा जाती है मिटटी |
कुछ पा जाना और कुछ खोना
सब हैं बहुत बाद की बातें
गढ़ना, बढ़ना, तराशना, संवारना
खुद पर अभिमान की हैं बातें |
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