धूप के पीछे
एक सर्द सुबह , गुनगुनी धूप
जाड़ों में कितनी भली लगे
छत का कोना, अखबार हाथ में
एक चाय की प्याली खूब जमे ।
जीवन की आपाधापी में
मैं स्वर्ण रश्मियाँ भूल गईं
दफ्तर जाने की भागम-भाग
बस तो नहीं मेरी छूट गईं ।
आफिस में बस काम याद
पीछे क्या कुछ रह जाता है
धूप का वह नन्हा टुकड़ा
मेरी राह देखता जाता है ।
फुर्सत के कुछ लम्हों में
खिड़की पर जा बैठी मैं
छनकर आई धूप सुहानी
हौले से फिर गरमाई मैं ।
कुछ पल बीते , कुछ क्षण बीते
सरक गई कोमल सी धूप
आया एक बादल का टुकड़ा
ले गया छिपा वह नरम धूप ।
मैं व्याकुल उसको खोज रही
बाहर भीतर, कोई छोर
बड़ी देर में , दिखा दूर वह
बढ़ता जा रहा क्षितिज की ओर ।
अगले दिन फिर हुई भोर
आज अंजुरी में भर लूंगी
रखूंगी उसको लगा ह्रदय से
दूर नहीं फिर जाने दूँगी ।
धूप कहाँ वह रुकने वाली
फिसल गई हाथों से मेरे
आगे बढ़ती जाती वह
मैं आती हूँ पीछे तेरे ।
मखमली घास का मिला बिछौना
ठहर गई एक पल को वह
मैं जा बैठी संग उसी के
कुछ अपनी कह दूँ, चुप सुनती वह ।
साँझ हुई , जाने को तत्पर
मन मनुहार करे, रुकने का
संभव नहीं, नियति मेरी
ले लिया वचन, कल आने का ।