दूरी से पैदा होता है मोह
मोह से जन्म लेती है माया
माया से बनता है नेह
नेह से उत्पन्न होता है प्रेम
प्रेम से सृजित होता है नया संसार
ऐसी दूरी से क्यों न हो प्यार .
दूरी दूर ले जाती है
अवसादों को तिरोहित कर जाती है
मौन हो जाते है
सब गिले शिकवे
याद रहती है तो बस
खैरियत उनकी
ऐसी दूरी की क्यों न हो चाह .
दूरी मिटा देती है
दिलों की दूरी
दूर रहने पर
याद आते हैं
वो सुखद पल
जो साथ गुजारे थे हमने
वो हसीं लम्हे
जिन्हें साथ जिया था हमने
ऐसी दूरी और पास ले आती है .
Friday, July 30, 2010
Tuesday, July 27, 2010
सब कुछ लागे नया नया
हर दिन एक नया सूर्य
सुबह अलसाई आँखें मूँद
नई धूप है नई रश्मियाँ
है नई ओस की बूँद .
एहसास तुम्हारा लगे नया
नया हर पल तुम लगते नव
अनछुए अनुभव से तुम
हर क्षण लगते नूतन नवीन .
चांदनी सी तुम धुली धुली
नव पल्लव सी खिली खिली
बारिश में जैसे नहाई सी
पत्तों पर बूंदे फिसली फिसली .
नई है कोपल नयी सी रिमझिम
नया स्वर कलकल निर्झर
ख्वाब नए है नयी तरंगे
बहे तुम्हारा नेह झरझर .
नई राह है नई चाह है
नया रस्ता मंजिल भी नई
नई खुशियाँ के रंग नए
कदम चूम ले चमक नई .
सुबह अलसाई आँखें मूँद
नई धूप है नई रश्मियाँ
है नई ओस की बूँद .
एहसास तुम्हारा लगे नया
नया हर पल तुम लगते नव
अनछुए अनुभव से तुम
हर क्षण लगते नूतन नवीन .
चांदनी सी तुम धुली धुली
नव पल्लव सी खिली खिली
बारिश में जैसे नहाई सी
पत्तों पर बूंदे फिसली फिसली .
नई है कोपल नयी सी रिमझिम
नया स्वर कलकल निर्झर
ख्वाब नए है नयी तरंगे
बहे तुम्हारा नेह झरझर .
नई राह है नई चाह है
नया रस्ता मंजिल भी नई
नई खुशियाँ के रंग नए
कदम चूम ले चमक नई .
Monday, July 26, 2010
विरह के ताप
व्याकुल है जग सारा
ठौर नहीं है घन दल का
मेरा मन भी तड़प रहा
सन्देश न आया साजन का ।
बदरा आये बौछार न आई
घुमड़ घुमड़ लौटे बौराए
कोई तो उनको रोके पूछे
प्यासी धरती से क्यों रूठे ।
तुम्हारी आस में रहते सब
सूनी सूनी मेरी गलियां
आकर बरस भी जाओ अब
भर आई हैं मेरी अंखियाँ ।
सूना सावन सूनी रैना
झूलों का संगीत है सूना
रिमझिम की झड़ी उदास
इन्द्रधनुष में नहीं उजास ।
मतवाले बादल मस्ती में
हवा बावरी टिकने ने दे
अमृत छलकाते तुम आना
पी के देस बरस जाना ।
देख जो पाऊं मैं उनको
व्यथित मन को आये करार
उमड़ते कजरारे मेघा
बरस भी जाओ मूसलाधार ।
प्यास बुझाते हो सबकी
नेह वृष्टि हम पर कर दो
शांत हों विरह के ताप
रसमय शीतलता भर दो ।
ठौर नहीं है घन दल का
मेरा मन भी तड़प रहा
सन्देश न आया साजन का ।
बदरा आये बौछार न आई
घुमड़ घुमड़ लौटे बौराए
कोई तो उनको रोके पूछे
प्यासी धरती से क्यों रूठे ।
तुम्हारी आस में रहते सब
सूनी सूनी मेरी गलियां
आकर बरस भी जाओ अब
भर आई हैं मेरी अंखियाँ ।
सूना सावन सूनी रैना
झूलों का संगीत है सूना
रिमझिम की झड़ी उदास
इन्द्रधनुष में नहीं उजास ।
मतवाले बादल मस्ती में
हवा बावरी टिकने ने दे
अमृत छलकाते तुम आना
पी के देस बरस जाना ।
देख जो पाऊं मैं उनको
व्यथित मन को आये करार
उमड़ते कजरारे मेघा
बरस भी जाओ मूसलाधार ।
प्यास बुझाते हो सबकी
नेह वृष्टि हम पर कर दो
शांत हों विरह के ताप
रसमय शीतलता भर दो ।
Saturday, July 24, 2010
बेटी हूँ मैं
धरती के गर्भ में
पहले समाती हूँ मैं
बड़ी होने से पहले
जड़ों से
उखाड़ दी जाती हूँ मैं
फिर कहीं
विस्थापित होती हूँ मैं
धान की पौध हूँ मैं
बेटी हूँ मैं ।
मेरे जनम पर
नहीं गाये जाते मंगलगीत
नहीं बांटी जाती मिठाइयाँ
माँ को मिलती हैं
ढेर सारी रुसवाइयां
क्योंकि बेटी हूँ मैं ।
मुझसे नहीं मिलेगा
इन्हें मोक्ष
नहीं चलेगा
इनका वंश
पर चलेगी
घर की चक्की
अतिथियों की सेवा टहल
छोटे भाई बहनों का पालन
क्षमता से ज्यादा
है मुझमें हिम्मत
आखिर बेटी हूँ मैं ।
जीवन की साँझ ढले
कंपकंपाते हाथ
जब होते हैं अकेले
नहीं आता कोई श्रवण
बूढी आँखें
जब करती हैं याचना
सहारे की
तब आगे आती हूँ मैं
कांवर उठाती हूँ मैं
सीने से लगाती हूँ मैं
वे मेरे पूजनीय हैं
जिगर का टुकड़ा हूँ मैं
उनकी बेटी हूँ मैं ।
पहले समाती हूँ मैं
बड़ी होने से पहले
जड़ों से
उखाड़ दी जाती हूँ मैं
फिर कहीं
विस्थापित होती हूँ मैं
धान की पौध हूँ मैं
बेटी हूँ मैं ।
मेरे जनम पर
नहीं गाये जाते मंगलगीत
नहीं बांटी जाती मिठाइयाँ
माँ को मिलती हैं
ढेर सारी रुसवाइयां
क्योंकि बेटी हूँ मैं ।
मुझसे नहीं मिलेगा
इन्हें मोक्ष
नहीं चलेगा
इनका वंश
पर चलेगी
घर की चक्की
अतिथियों की सेवा टहल
छोटे भाई बहनों का पालन
क्षमता से ज्यादा
है मुझमें हिम्मत
आखिर बेटी हूँ मैं ।
जीवन की साँझ ढले
कंपकंपाते हाथ
जब होते हैं अकेले
नहीं आता कोई श्रवण
बूढी आँखें
जब करती हैं याचना
सहारे की
तब आगे आती हूँ मैं
कांवर उठाती हूँ मैं
सीने से लगाती हूँ मैं
वे मेरे पूजनीय हैं
जिगर का टुकड़ा हूँ मैं
उनकी बेटी हूँ मैं ।
Thursday, July 22, 2010
ओस
गिरा गगन से जल मोती
जमीं पे आके मिला फूल से
फूल ने पहले पंख बिठाया
फिर अपने उर कंठ लगाया
दोनों मिल बतियाने लगे
मंद मंद मुस्काने लगे
ओस ढुलक गई धीरे से
साथ छूट गया हीरे से
अरुणिमा पूरब में लहराए
धीमे बहती ठंडी हवाएं
खिला कुसुम मध्यम मुस्काए
उस पर ओस की बूंदे छाये
कब तक जी पायेगी बूँद
पत्ते के आलिंगन में
बस चुकी है कब की
मेरे ही व्याकुल मन में
पल भर को सजना
शरमाई शबनम की तरह
एक ही क्षण में बिखरना
ठुकराई दुल्हन की तरह
कब तक यूं ही चलेगा
सजना और बिखरना
कभी ऐसा भी होगा
सिर्फ उनके लिए संवरना
पंखुरियों पर प्यार जताना
ओस के दर्पण में तुम आना
मेरे जीवन की है आकांक्षा
निर्मल बूंदों की करूँ प्रतीक्षा
जमीं पे आके मिला फूल से
फूल ने पहले पंख बिठाया
फिर अपने उर कंठ लगाया
दोनों मिल बतियाने लगे
मंद मंद मुस्काने लगे
ओस ढुलक गई धीरे से
साथ छूट गया हीरे से
अरुणिमा पूरब में लहराए
धीमे बहती ठंडी हवाएं
खिला कुसुम मध्यम मुस्काए
उस पर ओस की बूंदे छाये
कब तक जी पायेगी बूँद
पत्ते के आलिंगन में
बस चुकी है कब की
मेरे ही व्याकुल मन में
पल भर को सजना
शरमाई शबनम की तरह
एक ही क्षण में बिखरना
ठुकराई दुल्हन की तरह
कब तक यूं ही चलेगा
सजना और बिखरना
कभी ऐसा भी होगा
सिर्फ उनके लिए संवरना
पंखुरियों पर प्यार जताना
ओस के दर्पण में तुम आना
मेरे जीवन की है आकांक्षा
निर्मल बूंदों की करूँ प्रतीक्षा
Tuesday, July 20, 2010
मिटटी
मैंने तो
बस भेजी थी
कच्ची मिटटी
तुमने बना दिया
उसे कलश
जिसमे भरा है
शीतल गंगा जल
करने को
पावन
बुझाने को
प्यास
मिटटी
क्या रूप लेगी
तय नहीं करती मिटटी
ये तो गढ़ने वाले हाथ
और चाक का कमाल है
प्यार की थपकी
मिले जिस दिशा में
वही आकार पा
जाती है मिटटी
मिटटी
भेजी थी तुमने
संग थे मेरे सपने
चाक था घुमाया
रूप सुदर्शन पाया
कुम्हार का कुम्हलाया
दीप्त हुआ चेहरा
हकीकत देख सुम्मुख
बहुत जी हरषाया
मिटटी को चूमा
माथे से लगाया .
बस भेजी थी
कच्ची मिटटी
तुमने बना दिया
उसे कलश
जिसमे भरा है
शीतल गंगा जल
करने को
पावन
बुझाने को
प्यास
मिटटी
क्या रूप लेगी
तय नहीं करती मिटटी
ये तो गढ़ने वाले हाथ
और चाक का कमाल है
प्यार की थपकी
मिले जिस दिशा में
वही आकार पा
जाती है मिटटी
मिटटी
भेजी थी तुमने
संग थे मेरे सपने
चाक था घुमाया
रूप सुदर्शन पाया
कुम्हार का कुम्हलाया
दीप्त हुआ चेहरा
हकीकत देख सुम्मुख
बहुत जी हरषाया
मिटटी को चूमा
माथे से लगाया .
Monday, July 19, 2010
भाग रहे हैं हम
तेज चलती गाड़ी
से देखो बाहर
भाग रहे होते हैं
खेत खलिहान
पेड़ पौधे
नदी तालाब
पहाड़ और
इन्तजार कर रही लड़की
जैसे छूटी जाती है
स्मृति
अपनी दुनिया की
बस भाग रहे हैं हम ।
आगे कहाँ
भागे जा रहे हैं हम
नहीं पता मुझे
अपने गावं परिवेश
सभ्यता संस्कृति
जड़ों से दूर होते हम
भाग रहे हैं हम ।
आज की
तेज रफ़्तार जिन्दगी में
दौड़ रहे हैं हम
छोड़कर
अपने अपनों को
जीवन मूल्यों को
सावन के झूलों को
भाग रहे हैं हम ।
एक दूसरे से आगे
निकल जाने की होड़ में
आगे वाले को
रौंद देना चाहते हैं हम
भूलकर नैतिकता
मिटाकर मानवता
हटाकर शिष्टाचार
बस भाग रहे हैं हम ।
से देखो बाहर
भाग रहे होते हैं
खेत खलिहान
पेड़ पौधे
नदी तालाब
पहाड़ और
इन्तजार कर रही लड़की
जैसे छूटी जाती है
स्मृति
अपनी दुनिया की
बस भाग रहे हैं हम ।
आगे कहाँ
भागे जा रहे हैं हम
नहीं पता मुझे
अपने गावं परिवेश
सभ्यता संस्कृति
जड़ों से दूर होते हम
भाग रहे हैं हम ।
आज की
तेज रफ़्तार जिन्दगी में
दौड़ रहे हैं हम
छोड़कर
अपने अपनों को
जीवन मूल्यों को
सावन के झूलों को
भाग रहे हैं हम ।
एक दूसरे से आगे
निकल जाने की होड़ में
आगे वाले को
रौंद देना चाहते हैं हम
भूलकर नैतिकता
मिटाकर मानवता
हटाकर शिष्टाचार
बस भाग रहे हैं हम ।
Friday, July 16, 2010
रास्ते
पतली सी पगडण्डी हो
या आड़े तिरछे रस्ते
संकरी सी गलियां हों
या सीना ताने राजमार्ग ।
रास्ते हैं ये अंतहीन
दिशा का बोध कराते हैं
पथिक हो चाहे कैसा भी
मंजिल तक पहुंचाते हैं ।
दोराहे या चौराहे पर
भटक न जाना थम जाना
लेकर साथ अपना विवेक
लक्ष्य को अपने पा जाना ।
ये करते हैं इन्तजार
कब आयें प्रियवर मेरे
उनकी राहों में छावं बना दें
थक न जाएँ रघुवर मेरे ।
राह से तुम जाओगे गुजर
सुवासित हो जायेगी डगर
पंथ बुहारेगी पुरवईया
यहाँ से होकर गए सांवरिया ।
तलाश मुझे उस राह की
तेरे ह्रदय तक जाती हो
कोई और न सोचे जाने की
सिर्फ मुझे वहां ले जाती हो ।
या आड़े तिरछे रस्ते
संकरी सी गलियां हों
या सीना ताने राजमार्ग ।
रास्ते हैं ये अंतहीन
दिशा का बोध कराते हैं
पथिक हो चाहे कैसा भी
मंजिल तक पहुंचाते हैं ।
दोराहे या चौराहे पर
भटक न जाना थम जाना
लेकर साथ अपना विवेक
लक्ष्य को अपने पा जाना ।
ये करते हैं इन्तजार
कब आयें प्रियवर मेरे
उनकी राहों में छावं बना दें
थक न जाएँ रघुवर मेरे ।
राह से तुम जाओगे गुजर
सुवासित हो जायेगी डगर
पंथ बुहारेगी पुरवईया
यहाँ से होकर गए सांवरिया ।
तलाश मुझे उस राह की
तेरे ह्रदय तक जाती हो
कोई और न सोचे जाने की
सिर्फ मुझे वहां ले जाती हो ।
Wednesday, July 14, 2010
मंजरियाँ
आम्र पर बौर आये हैं
लगता वसंत की अगुवाई है
कोकिल ने छेड़ी मधुर तान
बजी ऋतुओं की शहनाई है ।
शुभ्र आगत का संकेत
लाई आम की मंजरियाँ
सुख वैभव की लिए पालकी
सस्वर हैं गाती ठुमरियां ।
हम सब की प्रिय हो तुम
देवों के सिर चढ़ इठलाती हो
तुम पावन, तुमसे पल्लव
प्रतीक सृजन की कहलाती हो ।
मंजरियाँ आयें शुभ आगम
कामदेव की विधा हो तुम
समृद्धि का रहे समागम
भावों की भीनी भोर हो तुम ।
मंजरियों की अलकें लगी झूलने
कोई गीत पुराना याद आया
मन गलियों में लगा घूमने
कल में आज है डूब गया ।
तुम्हीं से फल सिरमौर बना
जग में ऊँचा इसका धाम
सुगंध से है सरताज बना
सांवरिया का जैसे नाम ।
आया ऋतुराज तुम भी आओ
प्रकृति ने भेजी मधुशाला
मौसम पर मादकता छा दो
छलका दो अपनी प्रीत का प्याला ।
लगता वसंत की अगुवाई है
कोकिल ने छेड़ी मधुर तान
बजी ऋतुओं की शहनाई है ।
शुभ्र आगत का संकेत
लाई आम की मंजरियाँ
सुख वैभव की लिए पालकी
सस्वर हैं गाती ठुमरियां ।
हम सब की प्रिय हो तुम
देवों के सिर चढ़ इठलाती हो
तुम पावन, तुमसे पल्लव
प्रतीक सृजन की कहलाती हो ।
मंजरियाँ आयें शुभ आगम
कामदेव की विधा हो तुम
समृद्धि का रहे समागम
भावों की भीनी भोर हो तुम ।
मंजरियों की अलकें लगी झूलने
कोई गीत पुराना याद आया
मन गलियों में लगा घूमने
कल में आज है डूब गया ।
तुम्हीं से फल सिरमौर बना
जग में ऊँचा इसका धाम
सुगंध से है सरताज बना
सांवरिया का जैसे नाम ।
आया ऋतुराज तुम भी आओ
प्रकृति ने भेजी मधुशाला
मौसम पर मादकता छा दो
छलका दो अपनी प्रीत का प्याला ।
Saturday, July 10, 2010
मन का आँगन
मेरे मन के आँगन में
बीज प्रीत का रोपा मैंने
भीने भाव की नमी दी उसमें
दिव्य कुसुम सा पाया मैंने.
स्वर्णिम स्वप्नों से सहलाती
कैसा होगा यह सुंदर मेल
लरज लरजकर बतियाती
पुष्पों से लदी सुवासित बेल .
घर के हर कोने में फैली
कितना लाड लड़ाती है
मुझे दूर न कर पाओगे
गर्वित हो कह जाती है .
ज्योत्स्ना इसकी कण कण में
कुछ तीव्र गति है बढने की
खुश्बू इसकी रोम रोम में
हठयोगी नहीं कुछ घटने की .
अपार हर्ष हो या अवसाद
कहती है मैं साथ तेरे
मुझसे कह दो तो घटे विषाद
फटके न कभी यह पास तेरे .
चंदा की चटक चांदनी सी
मुस्काती भली सी लगती हो
कभी न ग्रहण हो तुम पर
सकुचाती रेशम लगती हो .
जब गुजरो इस राह से बालम
आँगन में मेरे सुस्ता लेना
कुछ शोख लताएँ अमरप्रेम की
संग अंग में रख लेना .
बीज प्रीत का रोपा मैंने
भीने भाव की नमी दी उसमें
दिव्य कुसुम सा पाया मैंने.
स्वर्णिम स्वप्नों से सहलाती
कैसा होगा यह सुंदर मेल
लरज लरजकर बतियाती
पुष्पों से लदी सुवासित बेल .
घर के हर कोने में फैली
कितना लाड लड़ाती है
मुझे दूर न कर पाओगे
गर्वित हो कह जाती है .
ज्योत्स्ना इसकी कण कण में
कुछ तीव्र गति है बढने की
खुश्बू इसकी रोम रोम में
हठयोगी नहीं कुछ घटने की .
अपार हर्ष हो या अवसाद
कहती है मैं साथ तेरे
मुझसे कह दो तो घटे विषाद
फटके न कभी यह पास तेरे .
चंदा की चटक चांदनी सी
मुस्काती भली सी लगती हो
कभी न ग्रहण हो तुम पर
सकुचाती रेशम लगती हो .
जब गुजरो इस राह से बालम
आँगन में मेरे सुस्ता लेना
कुछ शोख लताएँ अमरप्रेम की
संग अंग में रख लेना .
Thursday, July 8, 2010
चिट्ठियां
कागज का लघु अंश नहीं
दिल का हाल सुनाता हूँ
सुख दुःख हो या मिलन बिछोह
सीने पर रखकर लाता हूँ .
दुल्हन की हंसी खनकती सी
ओढ़कर उड़कर आऊं मैं
लिए खारा पानी बिरहन का
खामोश सा सब कह जाऊं मैं .
शीश नवाए खड़ा हूँ मैं
लिख दो मुझ पर मन की बात
भीतर अपने समाये हुए मैं
हूँ मैं तेरा सच्चा हमराज .
संगी मैं तेरे सपनों का
खुशियों का प्रमाण हूँ मैं
लगा कर रखो ह्रदय से
बीते वक़्त की आन हूँ मैं .
राधा मेरा पंथ निहारे
बैराग धरा है मीरा ने
श्यामसुंदर न मुडकर देखे
सन्देश न भेजा बंसीधर ने .
धरोहर मैं नवयौवन की
दीपक हूँ माँ की आस का
गोरी मुझे बांचे उलट पुलट
लाया प्रेम संदेशा तेरे प्रिय का .
Sunday, July 4, 2010
परदेस
सर्र सर्र बहती पुरवाई
चैन जिया का ले भागी
सूना जीवन सूना आँगन
मैं तो रह गई ठगी ठगी .
झूठी प्रीत लगा के मुझसे
पिया छोड़ गए परदेस
सरस सरोवर डूब गई मैं
आया न कोई सन्देश .
सारी रतिया जाग जाग
उनके विरह में काटी
प्रेम की प्यासी दर-दर भटकूँ
कैसे मैं जिऊँ अभागी .
अपना आँगन जान से प्यारा
अब लगे पराया देश
साजन आ भी जाओ
किसी विधि रखकर कोई भेस .
याद तुम्हारी बड़ी सताती
मन को घायल कर जाती
भोर भए पनघट पर
मोरी गगरी छलकत जाती .
तरस गई हैं प्यासी अँखियाँ
तुमसे मिलने की आस में
लगन लगी तेरे नाम की मुझको
जिऊँ दर्शन की आस में .
चैन जिया का ले भागी
सूना जीवन सूना आँगन
मैं तो रह गई ठगी ठगी .
झूठी प्रीत लगा के मुझसे
पिया छोड़ गए परदेस
सरस सरोवर डूब गई मैं
आया न कोई सन्देश .
सारी रतिया जाग जाग
उनके विरह में काटी
प्रेम की प्यासी दर-दर भटकूँ
कैसे मैं जिऊँ अभागी .
अपना आँगन जान से प्यारा
अब लगे पराया देश
साजन आ भी जाओ
किसी विधि रखकर कोई भेस .
याद तुम्हारी बड़ी सताती
मन को घायल कर जाती
भोर भए पनघट पर
मोरी गगरी छलकत जाती .
तरस गई हैं प्यासी अँखियाँ
तुमसे मिलने की आस में
लगन लगी तेरे नाम की मुझको
जिऊँ दर्शन की आस में .
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