आया वसंत मेरे गाँव
शीत की प्रीत छोड़
धूप ने बढ़ाये पाँव
ठिठुरन से मुख मोड़
आया वसंत मेरे गाँव
खिल उठी हैं रश्मियाँ
लुटा रही स्वर्ण राशि
रहे न कहीं कमियां
छाये न कोई उदासी
कली सुगबुगा उठी
खिलने की ऋतु आई
भ्रमर तितली मचल पड़ी
गुनगुन की बेला लाई
पलाश भी दहक उठा
किसकी मांग मैं बसूँ
ह्रदय में उफन रहा
किसके गालों पर सजूँ
कोकिल भी बावरी सी
खोज रही एक आँगन
तान छेड़ रही मधुर सी
गोरी का खनका कंगन
तैयारियां यौवन पर हैं
फागुन और फाग की
दोनों ही दुविधा में हैं
चिंता बढ़ी रंग राग की
सरसों भी लहलहा उठी
धारण किए पीत पट
प्रिय की फिर हूक उठी
बेल सी जाऊं लिपट .