अपने आँगन की क्यारी में
बीज सृजन के मैंने बोये
गर्भ गृह में समा गया क्या
सोच सोच कर मन रोये ।
एक सुबह देखा मैंने
पाषाण धरा को चीर
बाती सा एक अंकुर
मुस्काया, हरी मेरी पीर ।
मैं रोज सींचती ममता से
था उल्लास नहीं खोया
सर सर समीर झुलाती उसको
जैसे अबोध शिशु हो सोया ।
आस थी कब पल्लवित होगा
कब आयेंगे उस पर फल
मेरे हर्ष का पार न होगा
मेरी सृजना हो जाये सफल ।
कैसा था वह सुखद प्रभात
जब कली ने आँखें खोली
दुलराती उसको देख देख
इतराई मैं, वह थी अलबेली ।
अंतर में कितने पराग लिए
इसका उसको भान ना था
साथ में थे मेरे सपने
उसे जरा अभिमान ना था ।
पुष्प खिला उपहार मिला
मेरे जीवन में आया वसंत
तितली बोले, मधुकर डोले
आम्र बौर कितनी पसंद ।
किसको दूं यह कुसुम सुगन्धित
खुशबू जिसमे रच बस जाए
डाली से कोई दूर ना हो
इच्छा, यहीं अमर हो जाए ।