सतरंगी पालकी पर
इठलाती है फिरती
है कौन यह
अरे !!! ये तो है तितली ।
किस चित्रकार की
तूलिका से निकली
फूलों से करती आलिंगन
बागों में उड़ती मनचली ।
किस कवि की कल्पना
भंगिमा किस भाव की
किस शिल्पी की प्रतिमा
रचना किस रचनाकार की ।
शोख सी चंचल हो तुम
नाजों से ज्यादा नाजुक हो
स्पर्श से होती हो आहत
बढ़कर सुरा से मादक हो ।
जब वसंत की अगुवाई
करती मंद मलय पुरवाई
तुम्हे आमंत्रण देती अमराई
तुम आती कुछ इतराई ।
फूलों से यह फूल झड रहे
फूल तुम्हें अर्पण कर दें
सबके सब तेरी राह निहारें
खुशबू का सजदा कर दें ।
मेरे भी मन उपवन में
पल दो पल रहो ठहर
ऐसी रंगीनी रंग दो
रंगरेज भी जाए सिहर ।
Friday, April 30, 2010
Monday, April 26, 2010
लड़कियां
हमसे है रौनक जहाँ की
शोभा हमसे बागवां की
हम भोर की हैं रश्मियाँ
हम बेटियां, हम लड़कियां ।
गौरेया सी फुदकती
मैया के आँचल में
कोयल सी चहकती
भैया के प्रांगण में ।
छोटी सी हीरे की कनी
आँगन बुहारती बाबुल का
कली से भी कोमल है जो
चौबारा संवारती बाबा का ।
हमसे है सृजन सृष्टि
पोषण हमीं से
हमसे है ममता वत्सल
नेह वृष्टि हमीं से ।
घूँघट की आड़ में
घर में रंगोली भरती
यदि पंख पसार दिए
तो सैर चाँद की करती ।
पत्नी सा विश्वास भरा
रोमांच प्रेयसी सा छलके
पृथ्वी सी सब किये समाहित
दया क्षमा धीर शील बनके ।
एक छोटी सी चिंगारी
या नभ कड़काती दामिनी
आफताब कहो या सुर्ख गुलाब
या मीत, मधुर, मधुयामिनी ।
शोभा हमसे बागवां की
हम भोर की हैं रश्मियाँ
हम बेटियां, हम लड़कियां ।
गौरेया सी फुदकती
मैया के आँचल में
कोयल सी चहकती
भैया के प्रांगण में ।
छोटी सी हीरे की कनी
आँगन बुहारती बाबुल का
कली से भी कोमल है जो
चौबारा संवारती बाबा का ।
हमसे है सृजन सृष्टि
पोषण हमीं से
हमसे है ममता वत्सल
नेह वृष्टि हमीं से ।
घूँघट की आड़ में
घर में रंगोली भरती
यदि पंख पसार दिए
तो सैर चाँद की करती ।
पत्नी सा विश्वास भरा
रोमांच प्रेयसी सा छलके
पृथ्वी सी सब किये समाहित
दया क्षमा धीर शील बनके ।
एक छोटी सी चिंगारी
या नभ कड़काती दामिनी
आफताब कहो या सुर्ख गुलाब
या मीत, मधुर, मधुयामिनी ।
Tuesday, April 20, 2010
गेहूं की बालियाँ
सुनहरी सुनहरी
गेहूं की बालियाँ
जैसे भू पर सजी हों
सोने की थालियाँ ।
ये मेहनत हमारी कि
लरजकर लहरायें
है हिम्मत हमारी कि
रज से रजत उपजाएँ ।
स्वास्तिक है यह
हमारी खुशहाली का
समृद्धि का वैभव का
हर दिन दिवाली का ।
पक जाएँ जब
गेहूं के ये छंद
उत्सव मनाएं
सभी संग- संग ।
संजीवनी सी महके
सरसों लेती अंगड़ाई
कुंदन सी खिली बालियाँ
करती गुंजन संग पुरवाई ।
पगडण्डी और मेड़ो से
खलिहान तक का सफ़र
तुम्हारे लिए लाती
ओढ़नी में संजोये , भरी दोपहर ।
जीवंत हो उठे हैं
वो मोहक से पल
तुम खेतों के बीच
और मैं निकट हल ।
गेहूं की बालियाँ
जैसे भू पर सजी हों
सोने की थालियाँ ।
ये मेहनत हमारी कि
लरजकर लहरायें
है हिम्मत हमारी कि
रज से रजत उपजाएँ ।
स्वास्तिक है यह
हमारी खुशहाली का
समृद्धि का वैभव का
हर दिन दिवाली का ।
पक जाएँ जब
गेहूं के ये छंद
उत्सव मनाएं
सभी संग- संग ।
संजीवनी सी महके
सरसों लेती अंगड़ाई
कुंदन सी खिली बालियाँ
करती गुंजन संग पुरवाई ।
पगडण्डी और मेड़ो से
खलिहान तक का सफ़र
तुम्हारे लिए लाती
ओढ़नी में संजोये , भरी दोपहर ।
जीवंत हो उठे हैं
वो मोहक से पल
तुम खेतों के बीच
और मैं निकट हल ।
Monday, April 19, 2010
मेरी परिधि
असंख्य वृत्त नित्य निर्मित
अनवरत है परिक्रमा मेरी
मध्य मेरे अपने मेरे सपने
यही तो है परिधि मेरी ।
संसार मेरा यह परिधि चक्र
खो गया जिसमे मेरा निजपन
मन है इससे बाहर लान्घू
डर है खो ना दूं संतुलन ।
ना जाने कौन राह से तुम
इस परिधि में चले आये हो
सीमाबंधन को तोड़ के तुम
मन का कोना हथियाए हो ।
परिधि में एक शून्य बना
कल लौट तुम जाओगे
भर जाएगा खामोश रीतापन
स्मृतियों में यूं बस जाओगे ।
इस परिधि के आसपास
तुम अपना नीड़ बना लेना
थक जाऊं जब घूम - घाम
उर में मेरे गति भर देना ।
अनवरत है परिक्रमा मेरी
मध्य मेरे अपने मेरे सपने
यही तो है परिधि मेरी ।
संसार मेरा यह परिधि चक्र
खो गया जिसमे मेरा निजपन
मन है इससे बाहर लान्घू
डर है खो ना दूं संतुलन ।
ना जाने कौन राह से तुम
इस परिधि में चले आये हो
सीमाबंधन को तोड़ के तुम
मन का कोना हथियाए हो ।
परिधि में एक शून्य बना
कल लौट तुम जाओगे
भर जाएगा खामोश रीतापन
स्मृतियों में यूं बस जाओगे ।
इस परिधि के आसपास
तुम अपना नीड़ बना लेना
थक जाऊं जब घूम - घाम
उर में मेरे गति भर देना ।
Thursday, April 15, 2010
माली
कली ने कली से कहा कान में
ये माली है या कि रचयिता हमारा
हमें ये सहेजे, हमें ये संवारे
आखिर ये लगता है कौन हमारा ।
भोर हुई, आये आतुर से
प्यार से सींचे और दुलराये
मुरझाया देख हमें
इसका मुख भी कुम्हलाये ।
रोपा एक नन्हा सा बीज
ढेरों आशाएं साथ लिए
खिल आयेंगे पुष्प सुगन्धित
उम्मीदों को साथ लिए ।
हम लहरायें
ये खुश हो जाये
शूल चुभा दें
तो भी मुस्काये ।
इसने रची है रचना ऐसी
सुकुमार, सुकोमल और सुमधुर
खुशबु ऐसी भीनी - भीनी
मन ह्रदय तरंगित हो भीतर ।
प्रेमी के हाथ मनुहार लिए
हीर के गीत पिरोयें हैं
निश्छल मुस्कान की परछाई
शीरी ने नैन भिगोयें हैं ।
हे माली, ना हो उदास
हम फिर वापस आयेंगे
आहट होगी जब वसंत की
एक- दूजे को कंठ लगायेंगे ।
ये माली है या कि रचयिता हमारा
हमें ये सहेजे, हमें ये संवारे
आखिर ये लगता है कौन हमारा ।
भोर हुई, आये आतुर से
प्यार से सींचे और दुलराये
मुरझाया देख हमें
इसका मुख भी कुम्हलाये ।
रोपा एक नन्हा सा बीज
ढेरों आशाएं साथ लिए
खिल आयेंगे पुष्प सुगन्धित
उम्मीदों को साथ लिए ।
हम लहरायें
ये खुश हो जाये
शूल चुभा दें
तो भी मुस्काये ।
इसने रची है रचना ऐसी
सुकुमार, सुकोमल और सुमधुर
खुशबु ऐसी भीनी - भीनी
मन ह्रदय तरंगित हो भीतर ।
प्रेमी के हाथ मनुहार लिए
हीर के गीत पिरोयें हैं
निश्छल मुस्कान की परछाई
शीरी ने नैन भिगोयें हैं ।
हे माली, ना हो उदास
हम फिर वापस आयेंगे
आहट होगी जब वसंत की
एक- दूजे को कंठ लगायेंगे ।
Sunday, April 11, 2010
कागज़
कागज़ का पुर्जा हूँ मैं
या एक छोटा सा टुकड़ा
मुझमें देख रही है गोरी
अपने प्रिय का मुखड़ा ।
कागज़, एक कोरा कागज़
या हूँ तेरे मन की स्लेट
जो कुछ संकोच हो कहने में
जड़ दो मुझ पर अर्थ समेट ।
जिसकी आस में जोगन हो गई
कब आएगी प्रेम की पतिया
कागज़ के रथ पर सवार
करने आयेंगे मन की बतिया ।
सात समंदर पार बसे हो
किसकी डार मैं लागूँ साजन
एक तेरी चिट्ठी का सहारा
जिसकी राह निहारूं साजन ।
दिल अपना मैं चीर के रख दूं
संदेसा ले जा प्रेम कबूतर
जाकर चरणों में रख देना
बसी स्मृति है जिनकी भीतर ।
कब आओगे पूछ के आना
कह देना सब दिल का हाल
बिन तेरे मैं हुई अधूरी
बेबस, बेकल और बेहाल ।
कागज़ के मैं पंख बनाऊं
आकाश नाप लूं , तुम तक आऊँ
या कागज़ की बना के किस्ती
तैरा दूं, तुम तक पहुँचाऊँ ।
कागज़ धन्य हुआ उस पल
जब पढ़कर उसने ह्रदय लगाया
ख़ुशी से नाची, था उल्लास
उनसे मिलने का न्योता लाया ।
या एक छोटा सा टुकड़ा
मुझमें देख रही है गोरी
अपने प्रिय का मुखड़ा ।
कागज़, एक कोरा कागज़
या हूँ तेरे मन की स्लेट
जो कुछ संकोच हो कहने में
जड़ दो मुझ पर अर्थ समेट ।
जिसकी आस में जोगन हो गई
कब आएगी प्रेम की पतिया
कागज़ के रथ पर सवार
करने आयेंगे मन की बतिया ।
सात समंदर पार बसे हो
किसकी डार मैं लागूँ साजन
एक तेरी चिट्ठी का सहारा
जिसकी राह निहारूं साजन ।
दिल अपना मैं चीर के रख दूं
संदेसा ले जा प्रेम कबूतर
जाकर चरणों में रख देना
बसी स्मृति है जिनकी भीतर ।
कब आओगे पूछ के आना
कह देना सब दिल का हाल
बिन तेरे मैं हुई अधूरी
बेबस, बेकल और बेहाल ।
कागज़ के मैं पंख बनाऊं
आकाश नाप लूं , तुम तक आऊँ
या कागज़ की बना के किस्ती
तैरा दूं, तुम तक पहुँचाऊँ ।
कागज़ धन्य हुआ उस पल
जब पढ़कर उसने ह्रदय लगाया
ख़ुशी से नाची, था उल्लास
उनसे मिलने का न्योता लाया ।
Tuesday, April 6, 2010
दीप
गहन तिमिर में सेंध लगा
एक ज्योतिपुंज लहराया
घोर अँधेरा जितना भी हो
विजय दर्प फहराया ।
रात अमावस की हो चाहे
चन्द्र दूज बन आऊंगा
सघन निशा के जितने पहरे
शुभ प्रभात दिखलाऊंगा ।
मैं सारथी हूँ उजास का
तेरे जीवन में आऊंगा
उम्मीदों का बन प्रतीक
जगमग जगमग कर जाऊँगा ।
दीप, सिर्फ एक दीप नहीं मैं
साक्षी हूँ तेरे सपनों का
आशाओं का तेरे बसेरा
साथी हूँ तेरे अपनों का ।
हे मेरे झीने प्रकाश जा
उनके पथ को आलोकित कर
भटक न जाएँ मेरे प्रियवर
राह दिखा ध्रुव तारा बनकर ।
एक ज्योतिपुंज लहराया
घोर अँधेरा जितना भी हो
विजय दर्प फहराया ।
रात अमावस की हो चाहे
चन्द्र दूज बन आऊंगा
सघन निशा के जितने पहरे
शुभ प्रभात दिखलाऊंगा ।
मैं सारथी हूँ उजास का
तेरे जीवन में आऊंगा
उम्मीदों का बन प्रतीक
जगमग जगमग कर जाऊँगा ।
दीप, सिर्फ एक दीप नहीं मैं
साक्षी हूँ तेरे सपनों का
आशाओं का तेरे बसेरा
साथी हूँ तेरे अपनों का ।
हे मेरे झीने प्रकाश जा
उनके पथ को आलोकित कर
भटक न जाएँ मेरे प्रियवर
राह दिखा ध्रुव तारा बनकर ।
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