(ख्यातिप्राप्त चित्रकार मंजीत सिंह जी का चित्र वियोगिनी यशोधरा -साभार ) |
यशोधरा सी एक नारी
बनी कुंवर की वामांगी
महलों की थी राजदुलारी
आज बनी विरह की मारी
फूलों का गलियारा चलते
कदम जहाँ थक जाते थे
सारे सुख वैभव मंडराते
राहों में बिछ जाते थे
कामदेव सा पुरुष मिला
सिद्धार्थ नाम कहाते थे
राजप्रसाद में पुष्प खिला
सब बलिहारी जाते थे
नाजों के पाले हुए कुमार
देखी न दुःख की छाया
जर्जर देह न दिखा बुखार
वैभव की कुछ ऐसी माया
लचक लता सी महारानी
अहोभाग्य मनाती थी
विधना के मन की न जानी
फूलों की सेज सजाती थी
पति था उसका एक संत
जग को उसने सन्देश दिया
सारे सुखों का दिखा पंथ
मानवता पर उपकार विशेष किया
धन्य हुआ सारा संसार
गुणगान बुद्ध के हैं गाते
रनिवास में गूंगी हुई झंकार
सूखे पत्ते उड़ हैं आते .