(इन दिनों मैं रक्षा मंत्रालय में पदस्थापित हूँ. यहाँ सुरक्षा में तैनात सेना के जवानों , केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के जवानों के लिए खाने का डिब्बा आता है. उन डिब्बो को देख मन में भाव उठा कि उन्हें घर के खाने, उसके स्वाद की याद जरुर आती होगी. हमारी सुरक्षा में तैनात ये जवान कितना त्याग करते हैं. यह कविता उन्ही भावों से उपजी है )
डिब्बा है यह खाने का
भरा है इसमें भी जीवन
समय यादों के आने का
क्या है रहना प्रिय बिन
जब दोपहर लगती छाने
स्मृति में आती हो तुम
ओसारे बैठा मैं खाने
पंखा झलती बैठी तुम
रात फिर से गहराती है
डिब्बा फिर आ जाता है
क्षुधा शांत हो जाती है
मन तृप्त नहीं हो पाता है
डिब्बे के एक खाने में
तेरी खुशबू खोज रहा
और दूसरे खाने में
चूड़ी की खनक का बोध रहा
कर्तव्य मेरा राष्ट्र हित है
त्याग किया मैंने घर बार
समझे जो मेरा सहोदर है
कहाँ रहा देश से प्यार
सैनिक हूँ मैं अलबेला
किसी का पिता, पति भी
कर्तव्य पथ पर खड़ा अकेला
दृष्टि जाती नहीं किसी की
डिब्बे में जब आता खाना
नजरें कुछ लोग लगाते हैं
दर्द छुपा इसमें कितना
कहाँ समझ वो पाते हैं
बरसों से घर का खाना
नहीं हुआ नसीब मुझे
बंद डिब्बे में पानी दाना
साथी सा लग रहा मुझे
जब भी देखना डिब्बा अब
घर का एक कौर खिला देना
सम्मुख हो कोई सैनिक जब
प्यार प्रिय अनुज सा देना .