Monday, August 30, 2010
यादों की सलीब
कुछ इसको भी कह जाना
जाते हो बहुत दूर मुझसे
मन से दूर न जाना ।
झलक देखने को व्याकुल
दर्शन को तरसेंगी अँखियाँ
कहाँ मैं देखूं छवि तुम्हारी
सावन बरसेंगी अँखियाँ ।
रूप सुदर्शन सबको भाए
चन्दन मन शीतल कर जाए
मीठी बोली बरसाए सुधा
आँख खुले हो जाए विदा ।
हाथ छुडाये जाते हो
स्मृति छुड़ा न पाओगे
जब साथ रहेगी तन्हाई
याद बहुत तुम आओगे ।
दिन रैन बिताऊं पहलू में
नित सपने नव गढ़ते हैं
कैसे मैं खुद को समझाऊँ
तारे नहीं झोली भरते हैं ।
रातें नागिन दिन है पहाड़
हमें काटने हैं खुद ही
यादों की सूली पर चढ़ते
सलीब उठाये हैं खुद ही ।
Saturday, August 28, 2010
अंकुर की चाह
मिटटी
कुछ कहती नहीं
बस रखती है
अपने भीतर
छुपा के
सृजना का गुर ।
अंकुरित
करती है
नव जीवन
जड़ों से
रखती है
थामे पृथ्वी को ।
धैर्य है
उसकी परिभाषा
और सहनशीलता
आभूषण है
सोख लेती है
पानी
बाढ़
अपने भीतर
और खुद को
बना लेती है
और भी अधिक
उर्वर ।
मिटटी
हो तुम
बनने दो मुझे
ए़क अंकुर
जो फूटे
भीतर से
तुम्हारे
और जिसकी जड़े
शाश्वत हो जाएँ
तुम्हारे अंतस में ।
Saturday, August 21, 2010
चन्दन वन में
बनाती हूँ पंख
उड़ चलो तुम
सात समंदर पार ।
अपनी आँखों की
बनाती हूं ज्योति
बढ़ चलो तुम
शिखर की ओर ।
अपने भावों की
बनाती हूं पतवार
कर लो तुम
मन सागर पार ।
अपने गीतों में
सुनाती हूं सन्देश
घूम आओ तुम
परियो के देस ।
अपने ह्रदय पुष्प
बिछाती हूं मैं
कदम बढाओ तुम
मेरे चन्दन वन में ।
अपनी बाहों का एक बार
बना लो झूला
झूल जाऊं मैं बन मोरनी
मन में सावन का मेला ।
Thursday, August 19, 2010
आंसू
बहाने के लिए
संजो कर रखो
छुपा कर रखो
इन्हें
अनमोल मोती हैं
तुम्हारे मन सागर के
ह्रदय सीपी की
धरोहर हैं ये ।
भावों की
पतवार लिए
तिरते हैं ये
घड़ी - घड़ी
इन्हें यूं तनहा
मत छोडो
बिखर जायेंगे
कड़ी - कड़ी ।
आंसुओं को यूं
जाया न करो
रखो उन खुशियों के लिए
जो चाहता हूँ
मैं देना तुम्हें ।
उन खुशगवार लम्हों
के लिए रखो
जब उजास भर गया था
तुम्हारे चेहरे पर
देख मेरा दीप्त चेहरा .
आंसुओं को रखो
तब के लिए भी
जब मिलेगा तुम्हें
अपना खोया हुआ मित्र
धो देना सारे गिले
कर देना इनका अचवन ।
काम आयेंगे
उस समय भी
ये आंसू
जब कंठ से लगा
खोलोगी ह्रदय कपाट
सम्मुख मेरे ।
Sunday, August 15, 2010
सपने और संघर्ष
उठाई जब कलम
रचने को इतिहास
ख़ुशी से लगे इतराने
मेरे कागजात ।
चेहरा मेरा
दर्प से नहाया
आज मुझे भी कुछ
अभिमान हो आया ।
समय की भट्टी ने
चाहा जिसे खोना
गर्दिशों में तप कर
कुंदन हुआ सोना ।
झलकता है इस से
जीतने का जज्बा
अनवरत संघर्षो से
पाने को एक रूतबा ।
लिखते हुए हरफ आखिरी
थरथरा उठी थी नाजुक कलाई
दुआओं के बल पर उठाया जिन्होंने
उनकी स्मृति में आ गई रुलाई ।
पाकर यह मुकाम
मन में थी ख़ुशी
पर एक हूक भी थी
ऊंचाई पर अकेले होने की ।
क्षितिज हूँ मैं
जहाँ मिलते हैं
सपने और संघर्ष
गढ़ने को नई सुबह ।
(नोट: यह कविता तब लिखी थी जब पहली बार राजपत्रित अधिकारी बन कर किसी के कागजात को अभिप्रमाणित कर रही थी। यह कविता अपने पूज्य पिताजी को समर्पित करती हूँ, जिनके सपने और संघर्ष से मैं कोई मुकाम हासिल कर सकी। )
Friday, August 13, 2010
माचिस की तीली
हर तीली में
समाई है वही आग
जो करती है
प्रज्वलित पावन दीप
जलाती है चूल्हा
सुलगाती है अंगीठी
दहकाती है भट्टी
जो गलाती है लोहा
बनाती है इस्पात
भीतर की चिंगारी
माचिस की एक तीली .
आग नहीं
तुम ताप बनो
प्रेम की तपिश बनो
भावों की भट्टी में
गला दो सारा विषाद
पिघला दो सारा अवसाद
कर दो निर्मित कुंदन
तुम्हारे मन जैसा .
.....
एक बूँद अपने आप में
पूर्ण जिसमें
समाया है बादल
समाई है नदी
समाहित है समंदर
जो ले आता है ववंडर
बहा ले जाता है
शहरों के शहर
और दे जाता है
आँखों में समाया आंसू .
बनना है तो बनो बूँद
हर बूँद अपने आप में भरी
स्वयं ही पहली
और स्वयं ही आखिरी
हर बूँद उतनी ही प्यारी
बूँद बूँद का महत्व
है सागर की विशालता में
किसी में समा जाने के लिए
ओस की बूँद की तरह .
......
मिटटी का हर कण
अपने आप में सम्पूर्ण
चाहे गमले में हो
खेत या खलिहान में
या फिर
किसी खूबसूरत घर के लान में
सोख लेती है
सारा गरल
जो होता है अनर्गल .
बदले में देती है
सब नया अनछुआ
और उपयोगी
विशाल है उसका ह्रदय
विस्तृत है उसकी
उर्वरा क्षमता सहनशीलता
एक नारी की तरह ।
........
Wednesday, August 11, 2010
लहरें उतरी आसमान से
कहती हैं सब है मेरा
धीर धरा या नीला नभ
इन सबको हमने है घेरा .
कैसे रूखे रह पाओगे
जीवन प्राण मैं भर दूँगी
अतृप्त रहे न कोई जगत में
तृप्त मैं सबको कर दूँगी .
नदी नाप ले गहराई
पोखर देखे अपनी ऊंचाई
धरती सोख रही है मुझको
देने को अपनी तरुणाई .
दोनों हाथ उलीच रही मैं
भर लो अपना घर आँगन
पुरवाई संग लौट गई तो
रीता न रह जाए उनका मन .
धो दूं सब मन का कलुष
नहला दूं सृष्टि सारी
हरी ओढ़नी पहना दूं
या महका दूं रंगों की क्यारी .
प्रतीक्षा मैं है इन्द्रधनुष
कब खुद पर इतराएगा
बदरा मितवा जब देंगे मौका
सतरंगी छटा दिखायेगा .
मैं आई बड़ी आतुर सी
है सारा जग छाप लिया
बाहर भीतर शीतल कर दूं
तुमने जो मुझको याद किया .
जल रहा कश्मीर
फूलों की वादियाँ
शोखी की रहनुमाई
यौवन लेता अंगड़ाई ।
फिरती है एक लड़की
कुछ भूली बिसराई
ढूंढ़ती है यादें
है बहुत घबराई ।
खामोश है शिकारे
सूना पड़ा संगीत
केवट है पुकारे
न आये मनमीत ।
धरती का ये स्वर्ग
असुरों ने है घेरा
कहाँ पायें शरण
कहाँ डाले डेरा ।
क्यारी केसर की
महकना है भूली
कली शालीमार की
फिर से न फूली ।
आतंक और जंग
पैठ है लगाये
बारूद की गंध
हर ओर गंधाये ।
लाज पर पहरा नहीं
रक्षित नहीं है आबरू
सब तरफ शमशीर है
जल रहा कश्मीर है ।
Saturday, August 7, 2010
तेरा संग
भरा उमंग
तेरा संग
सच्चा आनंद
बाहर सावन
भीतर बसंत
स्वर में वीणा
वाणी मृदंग
आँखें स्वप्निल
ह्रदय अन्तरंग
रूप तुम्हारा
अदभुत बहिरंग
छू लो तुम
कुंदन हो जाऊं
धड़क धड़क
ह्रदय समाऊँ
बन मोहक पुष्प
तेरे केश सजाऊँ
या बन भौंरा
तुझ पर मंडराऊं
जब आसपास
लगे हवा महकने
समझ लेना
मैं लगा बहकने
Friday, August 6, 2010
सृष्टा हो तुम
पर्वत की नीरवता
कलियों की गुपचुप
झरने की सरगम
सब मन में होते हैं
जब तुम करीब होती हो ।
ये दुनिया
कितनी
खूबसूरत लगती है
जब तुम हौले से
मुस्कुरा देती हो
झरना बहता है भीतर ।
जब तुम
दूर कर देती हो
दूसरों के दुःख
मैं पहाड़ हो जाता हूँ
दृढ हो जाता हूँ ।
तुम सुखद स्मृति
संगीत तुम्हीं में
तुम सुंदर स्वपन
झंकार तुम्हीं में
ख़ामोशी तुम्हारी
कहती सब बात
बिना सुने
समझो दिल का हाल ।
बहुत कुछ
बना देती हो मुझे
सृष्टा हो तुम ।
Thursday, August 5, 2010
समय का ए़क टुकड़ा
ए़क पहिये की तरह है
रुका तो समझो
जिंदगी नहीं
चलता रहे
तो जारी है सफ़र
प्रेम भी
ए़क हिस्सा है
समय का
नहीं जताया जो
फिसल जाता है
समय
बंद मुट्ठी में
रेत की तरह
और उम्र
निकल जाती है
नदी की भांति
एहसास है मुझे
समय चल रहा है
अपनी गति से
और हर सांस के साथ
कम हो रहा है
अपने साथ होने का समय.
छोडो अपनी जिद्द
और लौट आओ
समय का ए़क टुकड़ा
अब भी
संभाले हूँ
अपने आँचल में
Sunday, August 1, 2010
मंजिलें
रास्ता कुछ है नया
आशा का दीप लिए
लक्ष्य का क्या पता ।
राहें मिलती हैं नहीं
फासले बढते गए
हर कदम कहता सहम
थम लें ठहर दो कदम ।
अच्छा होता गुजर जाते
मोड़ से अनजान हम
बावरा ये मन भागता
न जाने है क्यों वहीँ ।
आईने से पूछूं भला क्या
जवाब कुछ देता नहीं
मालूम नहीं कुछ चल रहा
क्या रास्ता है यही सही ।
पाना है आकाशकुसुम
कठिन डगर है जाना
जाने कौन मिले हमराही
सपनों को है पाना ।
काली घटाओं के मध्य से
मुझे झांकता है कोई
मदभरे अधखुले नयनों से
मुझे झांकता है कोई ।
प्रयास बढाऊं मैं जितना
वह आगे बढती जाती है
गर तुम हो साथ मेरे
थोड़ी करीब आ जाती है ।
गहन कालिमा दिखती है
पर झिलमिल दूर नहीं है
थककर बैठ गए क्या साथी
अब मंजिल दूर नहीं है ।
सावन की झड़ी
बूंदों से बूंदों की होड़ बढ़ी
सावन की कैसे लगी झड़ी
धरा को मिला संपोषित नेह
खिली कोंपलें और तृप्त हुई .
खेतिहरों के माथे सिलवट धुली
बादलों ने जो उठाईं पलकें
जन जन के मन मिसरी घुली
गोरी की अँखियाँ भी छलके .
गगन से लेकर मेरे आँगन
कैसी सजी मोतियों की लड़ी
बैरी बदरा इतना न बरसो
सजना की आती है याद बड़ी .
मतवारे मेघा क्यों हो बौराए
मेरी सुनो तनिक ठहर जाओ
गए है मेरे पिया परदेस
उनकी अटरिया भी बरस आओ .
बीसों पहर झूमकर बरसो
तबहूँ न मोरा जियरा जुड़ाए
अबकी सावन जो लौटेंगे वो
तबहि धधकता कलेजा ठंडाये .
बरखा रानी ह्रदय में समाये
लौट भी जाओ न तडपाओ
अगले चौमासे फिर से आना
संग होंगे प्रियतम बरस के जाना .