सृष्टि की जननी बनकर
है सृष्टा का भेस धरा
वृहत वसुंधरा से बढ़कर
रचयिता ने शरण स्वर्ग भरा ।
माँ कहलाई महिमा पाई
ममता दुलार लुटाती हो
देवों ने भी स्तुति गाई
हर रिश्ते से गुरुतर हो ।
सहोदरा सा रूप मनोरम
छवि अपनी कितनी सुखकर
दो बोल स्नेह भरे अनुपम
लाज बचाने आये ईश्वर ।
भरी पड़ी धरती सारी
सीता जैसी सतियों से
अनुसूया और गार्गी तारी
इस जग को असुरों से ।
इतिहास साक्षी है अपना
अवतरित हुईं दुर्गा कितनी
रानी झाँसी सी वीरांगना
मीरा सी जोगन कितनी ।
कनिष्ठा पर गोवर्धन उठाये
कान्हा कितने इतराते हैं
बरसाने वाली उन्हें नचाये
संग लय ताल ठुमकते हैं ।
हर रूप तुम्हारा रहे अनूप
तुम अनुकरणीय पथगामिनी
युग बदला तुम रहीं अनुरूप
अल्पज्ञ जो कहते अनुगामिनी ।
नारी विस्मय रूप तुम्हारा
नमन करे यह जग सारा
भोर मुखर ले दीप्त सहारा
निशा ढले पा मौन पसारा .
जगत साधती नारी जग में।
ReplyDeleteनारी विस्मय रूप तुम्हारा
ReplyDeleteनमन करे यह जग सारा,,,
वाह ,,, बहुत उम्दा,लाजबाब रचना....
recent post: रूप संवारा नहीं,,,
सार्थक अभिवयक्ति......
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