Friday, February 10, 2012

सृजन के बीज

अपने आँगन की क्यारी में
बीज सृजन के मैंने बोये
गर्भ गृह में समा गया क्या
सोच सोच कर मन रोये ।

एक सुबह देखा मैंने
पाषाण धरा को चीर
बाती सा एक अंकुर
मुस्काया, हरी मेरी पीर ।

मैं रोज सींचती ममता से
था उल्लास नहीं खोया
सर सर समीर झुलाती उसको
जैसे अबोध शिशु हो सोया ।

आस थी कब पल्लवित होगा
कब आयेंगे उस पर फल
मेरे हर्ष का पार न होगा
मेरी सृजना हो जाये सफल ।

कैसा था वह सुखद प्रभात
जब कली ने आँखें खोली
दुलराती उसको देख देख
इतराई मैं, वह थी अलबेली ।

अंतर में कितने पराग लिए
इसका उसको भान ना था
साथ में थे मेरे सपने
उसे जरा अभिमान ना था ।

पुष्प खिला उपहार मिला
मेरे जीवन में आया वसंत
तितली बोले, मधुकर डोले
आम्र बौर कितनी पसंद ।

किसको दूं यह कुसुम सुगन्धित
खुशबू जिसमे रच बस जाए
डाली से कोई दूर ना हो
इच्छा, यहीं अमर हो जाए ।

10 comments:

  1. सृजन बीज के बोये जब भी, अंकुर धीरे से निकला

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    घूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच
    लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर की जाएगी!
    सूचनार्थ!

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  3. किसको दूं यह कुसुम सुगन्धित
    खुशबू जिसमे रच बस जाए
    डाली से कोई दूर ना हो
    इच्छा, यहीं अमर हो जाए ।
    Kya baat hai! Bahut khoob!

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  4. बेहद खूबसूरत रचना दिल को छू गयी।

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  5. "पुष्प खिला उपहार मिला
    मेरे जीवन में आया वसंत
    तितली बोले, मधुकर डोले
    आम्र बौर कितनी पसंद । "

    Bahut khoob.....

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  6. किसको दूं यह कुसुम सुगन्धित
    खुशबू जिसमे रच बस जाए
    डाली से कोई दूर ना हो
    इच्छा, यहीं अमर हो जाए ।

    ....बहुत सुंदर...दिल को छू गयी..

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  7. सृजन बीज पल्लवित होगा ही

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  8. बेहद खूबसूरत/भावपूर्ण रचना...
    हार्दिक बधाई..

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  9. ऐसा सृजन बीज निरंतर पुष्पित पल्लवित हो यही शुभकामनाएं हैं

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  10. अत्यंत सार्थक, प्रेरक एवं उद्देश्यपूर्ण रचना !

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