Wednesday, February 22, 2012

मोम


 
 

 
मोम की गुड़िया बनाई
विधना ने अपने हाथ
फिर उसकी की बिदाई  
देकर किसी का साथ
 
कोमल वह सकुचाई सी
आगे था सारा संसार
चले जरा शरमाई सी
कैसे हो भवसागर पार
 
लघु तरू नन्हा अंकुर
बहने को जल प्रपात
कैसे अपने प्राण बचाऊँ
ढहाने को है झंझावत
 
तिनके का लिया सहारा
उतर गई वह पार
पत्थर में प्राण फूंकें
करती सबका उद्धार
 
एक लचीले  पिंड में
किसने भरी उर्जा इतनी
जा बैठी देवालय में
इसमें आई शक्ति कितनी
 
देव का वरदान है
या ममता की कुंजी
प्रेम का भण्डार है
या  शीलता की पूँजी
 
मोम को शिला बनाया
आज के हालात ने
हंसती है न रोती है
जीती है बियाबान में .    

9 comments:

  1. समय के साथ अनुकूलता और अपने भीतर के लचीलेपन से यह भवसागर हंसते-हंसते पार हुआ जा सकता है।

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  2. मोम को शिला बनाया
    आज के हालात ने
    हंसती है न रोती है
    जीती है बियाबान में .
    Aah!

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  3. बहुत सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति...

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  4. मोम को पिघलते भी देखा और शिला बनते भी..

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  5. गहन भाव संयोजन लिए बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  6. बेहद गहन अभिव्यक्ति

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  7. गहन भाव..
    बहूत हि सुंदर,,
    सार्थक अभिव्यक्ती....

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  8. एक स्त्री की यात्रा की भावपूर्ण प्रस्तुति

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