मोम की गुड़िया बनाई
विधना ने अपने हाथ
फिर उसकी की बिदाई
देकर किसी का साथ
कोमल वह सकुचाई सी
आगे था सारा संसार
चले जरा शरमाई सी
कैसे हो भवसागर पार
लघु तरू नन्हा अंकुर
बहने को जल प्रपात
कैसे अपने प्राण बचाऊँ
ढहाने को है झंझावत
तिनके का लिया सहारा
उतर गई वह पार
पत्थर में प्राण फूंकें
करती सबका उद्धार
एक लचीले पिंड में
किसने भरी उर्जा इतनी
जा बैठी देवालय में
इसमें आई शक्ति कितनी
देव का वरदान है
या ममता की कुंजी
प्रेम का भण्डार है
या शीलता की पूँजी
मोम को शिला बनाया
आज के हालात ने
हंसती है न रोती है
जीती है बियाबान में .
समय के साथ अनुकूलता और अपने भीतर के लचीलेपन से यह भवसागर हंसते-हंसते पार हुआ जा सकता है।
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteमोम को शिला बनाया
ReplyDeleteआज के हालात ने
हंसती है न रोती है
जीती है बियाबान में .
Aah!
बहुत सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteमोम को पिघलते भी देखा और शिला बनते भी..
ReplyDeleteगहन भाव संयोजन लिए बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteबेहद गहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteगहन भाव..
ReplyDeleteबहूत हि सुंदर,,
सार्थक अभिव्यक्ती....
एक स्त्री की यात्रा की भावपूर्ण प्रस्तुति
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