Saturday, January 28, 2012

 

आया वसंत मेरे गाँव 

शीत की प्रीत छोड़ 
धूप ने बढ़ाये पाँव 
ठिठुरन से मुख मोड़ 
आया वसंत मेरे गाँव 

खिल उठी हैं रश्मियाँ 
लुटा रही स्वर्ण राशि
रहे न कहीं कमियां 
छाये न कोई उदासी 

कली सुगबुगा उठी 
खिलने की ऋतु आई
भ्रमर तितली मचल पड़ी 
गुनगुन की बेला लाई 

पलाश भी दहक उठा 
किसकी मांग मैं बसूँ 
ह्रदय में उफन रहा 
किसके गालों पर सजूँ

कोकिल भी बावरी सी 
खोज रही एक आँगन 
तान छेड़ रही मधुर सी 
गोरी का खनका कंगन 

तैयारियां यौवन पर हैं 
फागुन और फाग की 
दोनों ही दुविधा में हैं 
चिंता बढ़ी रंग राग की 

सरसों भी लहलहा उठी 
धारण किए पीत पट 
प्रिय की फिर हूक उठी 
बेल  सी जाऊं लिपट .  

4 comments:

  1. सरसों भी लहलहा उठी
    धारण किए पीत पट
    प्रिय की फिर हूक उठी
    बेल सी जाऊं लिपट .

    बसंत का अनुपम चित्रण।

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  2. आपका सृजनात्मक कौशल हर पंक्ति में झांकता दिखाई देता है।

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  3. ...बहुत ही सुन्दर रचना

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