पंचवटी: भारतीय संस्कृति में एक अहम् स्थान रखती है.
आचार्य मैथिली शरण गुप्त जी के पंचवटी से प्रेरित होकर एक खंड काव्य लिखना चाह रही हूँ. राष्ट्रकवि के पंचवटी की धूलि भी लिख सकी तो मैं स्वयं को धन्य मानूंगी. प्रस्तुत है कुछ अंश
अयोध्या नगरी धन्य हुई
जब भुवन में गूंजी किलकारी
माता की ममता तृप्त भई
सुर, नर, मुनि जाएँ बलिहारी
अप्सरा सी तीन रानियाँ
कैकेयी थी उनमें कुछ खास
अतिरिक्त प्रेम था राजा का
विशेष बहुत उसमें थी बात
ह्रदय के बेहद निकट थी वह
प्रेम बरसता था राजा का
उसकी वाणी अकट सत्य
स्वीकार्य स्नेह था प्रजा का
निपुण बहुत युद्ध कौशल पाया
राजा दशरथ के मन भाया
युद्धभूमि में साथ निभाया
उपहार था दो वचनों का पाया
राज्याभिषेक राम का था
पर होनी को स्वीकार्य नहीं
लक्ष्य और विधना ने रचा था
भोग विलास पुरुषार्थ नहीं
नृप का प्राणहन्ता बना वचन
राम को मिला गहन वनवास
भातृ प्रेम की हुई परीक्षा
सीता ने ग्रहण किया प्रवास
पुरुषोत्तम लिए मर्यादा को
वन को था प्रस्थान किया
रघुकुल की रीत निभाने को
वचन पिता का मान लिया
जा पहुंचे सरयू तट पर
कलकल बहती थी धारा
तोड़ किनारा पैर पखारूँ
मचल उफन रहती धारा
नदी पार करने की खातिर
प्रभू ने केवट से की अनुनय
भोला सा मुख देख राम का
अवाक खड़ा करबद्ध विनय
सहरी सा परिवार मेरा
नैया ही एक सहारा है
चरणरज आपकी है जादू
नाव यदि बन गई नारी
कौन सहारा होगा मेरा
परिवार का मेरे पालनहार
बिन पैर पखारे चढ़ने न दूं
क्षमा प्रभु जग खेवनहार
केवट ने धोये पाँव
सरयू जल और अश्रु से
देख के वह निर्मल श्रद्धा
नीर बह गए नैनों से
नाव बिठाये सिया राम को
केवट चला दूसरे छोर
सारे जग के पार लगैया
केवट के हाथ थमा दी डोर
वैतरणी बनी नाव साधारण
जग के स्वामी थे सवार हुए
पतिव्रता का तेज असाधारण
लक्ष्मण तनिक विचलित न हुए
पार पहुँच गए लखन जानकी
राम मुद्रिका दें उतराई
केवट को कुछ समझ न आये
मंद मधुर मुस्काते रघुराई
सब जा पहुंचे मध्य अरण्य
प्रतीक्षा में था भविष्य खड़ा
यहीं बनाये पर्ण कुटीर
था पंचवटी का भाग्य बड़ा
ठहर गया मलय समीर
पंचवटी में देख उन्हें
जीव जंतु स्तब्ध अधीर
कौतुक से निहारें निर्मिमेष
नाजों से नाजुक जनकदुलारी
पैरों में पड़ गए छाले
फूल से कोमल सुकुमारी
था काँटों पर चलना भारी
चंदा सूरज से राजकुंवर
तल्लीन थे कुटी बनाने में
सीता सी प्यारी रमणी
सुध खोई उसे निहारने में
कुटीर बन तैयार हुआ
सिया ने फूंके उसमें प्राण
महलों का सुख वैभव तज
जंगल में मंगल करती आन
एक तपस्वी लक्ष्मण सा
कुटिया का बन गया प्रहरी
वन के जीव जंतु हर्षाते
वटी में बहती सुख लहरी
अथक अनुयायी सियाराम का
दिन हो या कि रात अँधेरी
विश्राम नींद का किया त्याग
भातृ प्रेम की करते फेरी
क्रमशः
पंचवटी से कमतर नहीं लग रही किसी तरह. लिखती रहिये .शुभकामनाएं
ReplyDeleteबड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है आपने।
ReplyDeleteबहुत छंद-बद्ध प्रस्तुति !
ReplyDeleteKya kamaal kee rachana rachee hai aapne!
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति ...
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर रसमयी धाराप्रवाह प्रस्तुति …………जारी रखें।
ReplyDeleteअच्छा प्रयास । लिखती रहिये ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया!
ReplyDeleteमकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएँ!
बहुत सी सुंदर,प्रवाहमयी.लिखती रहें.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है |
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय.......
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteमन तृप्त हो उठा !
रामकथा प्रसंग का सुंदर चित्रण।
ReplyDeleteसुन्दर चित्रण रामकथा का
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