Friday, May 20, 2011

सृजन के बीज



अपने आँगन की क्यारी में
बीज सृजन के मैंने बोये
गर्भ गृह में समा गया क्या
सोच सोच कर मन रोये ।

एक सुबह देखा मैंने
पाषाण धरा को चीर
बाती सा एक अंकुर
मुस्काया, हरी मेरी पीर ।

मैं रोज सींचती ममता से
था उल्लास नहीं खोया
सर सर समीर झुलाती उसको
जैसे अबोध शिशु हो सोया ।

आस थी कब पल्लवित होगा
कब आयेंगे उस पर फल
मेरे हर्ष का पार न होगा
मेरी सृजना हो जाये सफल ।

कैसा था वह सुखद प्रभात
जब कली ने आँखें खोली
दुलराती उसको देख देख
इतराई मैं, वह थी अलबेली ।

अंतर में कितने पराग लिए
इसका उसको भान ना था
साथ में थे मेरे सपने 
उसे जरा अभिमान ना था । 

पुष्प खिला उपहार मिला 
मेरे जीवन में आया वसंत 
तितली बोले, मधुकर डोले 
आम्र बौर कितनी पसंद । 

किसको दूं यह कुसुम सुगन्धित 
खुशबू जिसमे रच बस जाए
डाली से कोई दूर ना हो
इच्छा, यहीं अमर हो जाए ।

22 comments:

  1. अंतर में कितने पराग लिए
    इसका उसको भान ना था
    साथ में थे मेरे सपने
    उसे जरा अभिमान ना था ।

    बहुत सुन्दर भाव मयी रचना

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  2. आपने एक माँ की कोमल भावनाओं को कविता में बहुत ही बखूबी गूंथा है !
    आपकी अभिव्यक्ति मन को छूती है !
    आभार !

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  3. बहुत मखमल जैसी सुन्दर और भावप्रणव रचना!

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  4. एक माँ के ह्रदय से ही इतनी सुकोमल रचना जन्म ले सकती है!! आप नियमित क्यों नहीं लिखतीं??

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  5. बहुत खूबसूरत कविता हैँ ।
    मन के एहसासोँ की अच्छी अभिव्यक्ति हुई हैँ

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  6. बहुत सूम्दर रचना।
    • इस कविता में आपकी वैचारिक त्वरा की मौलिकता नई दिशा में सोचने को विवश करती है।

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  7. किसको दूं यह कुसुम सुगन्धित
    खुशबू जिसमे रच बस जाए
    डाली से कोई दूर ना हो
    इच्छा, यहीं अमर हो जाए ।
    Kitni manoharee ichha hai!

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  8. प्राकृतिक उपालम्भों ने बहुत सुन्दर स्वर दिये हैं

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  9. बहुत सुंदर, सब कुछ है इस कविता में।

    अंतर में कितने पराग लिए
    इसका उसको भान ना था
    साथ में थे मेरे सपने
    उसे जरा अभिमान ना था ।

    बधाई

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  10. मैं रोज सींचती ममता से
    था उल्लास नहीं खोया
    सर सर समीर झुलाती उसको
    जैसे अबोध शिशु हो सोया

    BAhut bhavpoorn panktiyan

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  11. डाली वल्लों तोड़ न सानुं,
    असीं हट्ट महक दी लाई,
    लख बंदे जे आके सूंघें,
    कोई खाली हाथ न जाई।

    खुशबुओं का संसार बरकरार रहे।

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  12. मैं रोज सींचती ममता से
    था उल्लास नहीं खोया
    सर सर समीर झुलाती उसको
    जैसे अबोध शिशु हो सोया ।
    बहुत खूबसूरत !
    मेरी नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है : Blind Devotion - स्त्री अज्ञानी ?

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  13. किसको दूं यह कुसुम सुगन्धित
    खुशबू जिसमे रच बस जाए
    डाली से कोई दूर ना हो
    इच्छा, यहीं अमर हो जाए ।
    sunder bhav
    rachana

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  14. डाली से कोई दूर ना हो
    इच्छा, यहीं अमर हो जाए.

    वाह जी,क्या बात है .

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  15. बाती सा एक अंकुर
    मुस्काया, हरी मेरी पीर ।....ati sundar

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  16. डाली से कोई दूर ना हो
    इच्छा, यहीं अमर हो जाए.
    बहुत ही सुंदर,
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  17. कैसा था वह सुखद प्रभात
    जब कली ने आँखें खोली
    दुलराती उसको देख देख
    इतराई मैं, वह थी अलबेली ।... बहुत सुन्दर सपनो का सं सार बसाया .
    सुन्दर अभिव्यक्ति....

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  18. अंतर में कितने पराग लिए
    इसका उसको भान ना था
    साथ में थे मेरे सपने
    उसे जरा अभिमान ना था ।

    ...कोमल अहसासों से परिपूर्ण बहुत भावपूर्ण रचना..बहुत सुन्दर

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  19. बहुत कोमल अहसास..सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति..

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  20. डाली से कोई दूर ना हो
    सुंदर भाव!

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