अपने आँगन की क्यारी में
बीज सृजन के मैंने बोये
गर्भ गृह में समा गया क्या
सोच सोच कर मन रोये ।
एक सुबह देखा मैंने
पाषाण धरा को चीर
बाती सा एक अंकुर
मुस्काया, हरी मेरी पीर ।
मैं रोज सींचती ममता से
था उल्लास नहीं खोया
सर सर समीर झुलाती उसको
जैसे अबोध शिशु हो सोया ।
आस थी कब पल्लवित होगा
कब आयेंगे उस पर फल
मेरे हर्ष का पार न होगा
मेरी सृजना हो जाये सफल ।
कैसा था वह सुखद प्रभात
जब कली ने आँखें खोली
दुलराती उसको देख देख
इतराई मैं, वह थी अलबेली ।
अंतर में कितने पराग लिए
इसका उसको भान ना था
साथ में थे मेरे सपने
उसे जरा अभिमान ना था ।
पुष्प खिला उपहार मिला
मेरे जीवन में आया वसंत
तितली बोले, मधुकर डोले
आम्र बौर कितनी पसंद ।
किसको दूं यह कुसुम सुगन्धित
खुशबू जिसमे रच बस जाए
डाली से कोई दूर ना हो
इच्छा, यहीं अमर हो जाए ।
अंतर में कितने पराग लिए
ReplyDeleteइसका उसको भान ना था
साथ में थे मेरे सपने
उसे जरा अभिमान ना था ।
बहुत सुन्दर भाव मयी रचना
आपने एक माँ की कोमल भावनाओं को कविता में बहुत ही बखूबी गूंथा है !
ReplyDeleteआपकी अभिव्यक्ति मन को छूती है !
आभार !
बहुत मखमल जैसी सुन्दर और भावप्रणव रचना!
ReplyDeleteएक माँ के ह्रदय से ही इतनी सुकोमल रचना जन्म ले सकती है!! आप नियमित क्यों नहीं लिखतीं??
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत कविता हैँ ।
ReplyDeleteमन के एहसासोँ की अच्छी अभिव्यक्ति हुई हैँ
बहुत सूम्दर रचना।
ReplyDelete• इस कविता में आपकी वैचारिक त्वरा की मौलिकता नई दिशा में सोचने को विवश करती है।
किसको दूं यह कुसुम सुगन्धित
ReplyDeleteखुशबू जिसमे रच बस जाए
डाली से कोई दूर ना हो
इच्छा, यहीं अमर हो जाए ।
Kitni manoharee ichha hai!
प्राकृतिक उपालम्भों ने बहुत सुन्दर स्वर दिये हैं
ReplyDeleteबहुत सुंदर, सब कुछ है इस कविता में।
ReplyDeleteअंतर में कितने पराग लिए
इसका उसको भान ना था
साथ में थे मेरे सपने
उसे जरा अभिमान ना था ।
बधाई
मैं रोज सींचती ममता से
ReplyDeleteथा उल्लास नहीं खोया
सर सर समीर झुलाती उसको
जैसे अबोध शिशु हो सोया
BAhut bhavpoorn panktiyan
डाली वल्लों तोड़ न सानुं,
ReplyDeleteअसीं हट्ट महक दी लाई,
लख बंदे जे आके सूंघें,
कोई खाली हाथ न जाई।
खुशबुओं का संसार बरकरार रहे।
bahut khoob
ReplyDeleteकिसको दूं यह कुसुम सुगन्धित
ReplyDeleteखुशबू जिसमे रच बस जाए
डाली से कोई दूर ना हो
इच्छा, यहीं अमर हो जाए ।
sunder bhav
rachana
डाली से कोई दूर ना हो
ReplyDeleteइच्छा, यहीं अमर हो जाए.
वाह जी,क्या बात है .
बाती सा एक अंकुर
ReplyDeleteमुस्काया, हरी मेरी पीर ।....ati sundar
डाली से कोई दूर ना हो
ReplyDeleteइच्छा, यहीं अमर हो जाए.
बहुत ही सुंदर,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
कैसा था वह सुखद प्रभात
ReplyDeleteजब कली ने आँखें खोली
दुलराती उसको देख देख
इतराई मैं, वह थी अलबेली ।... बहुत सुन्दर सपनो का सं सार बसाया .
सुन्दर अभिव्यक्ति....
अंतर में कितने पराग लिए
ReplyDeleteइसका उसको भान ना था
साथ में थे मेरे सपने
उसे जरा अभिमान ना था ।
...कोमल अहसासों से परिपूर्ण बहुत भावपूर्ण रचना..बहुत सुन्दर
बहुत कोमल अहसास..सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति..
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर भाव।
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चलो चलें मधुबन में....
मन की प्यास बुझाओ, पूरी कर दो हर अभिलाषा।
डाली से कोई दूर ना हो
ReplyDeleteसुंदर भाव!