मन के चक्षु
इक सूरदास सा था जीवन
बस चलते ही जाना है
रुकना न कहीं पल भर को
मंजिल तक बढ़ते जाना है.
किलकारी जब मारी उसने
अपनी माता के आँचल में
सोचा भी न होगा उसने
आरम्भ हुआ अस्ताचल में।
देख न पाया जननी को
जिसने वार दुलार दिया
मन के चक्षु डूबे अश्रु में
क्या माता का अपमान किया।
जिन नैनो की ज्योति मद्धम
माँ उनको चूम चूम लेती
चलते चलते जब होता आहत
माँ स्व नैनों में भर लेती।
समय चक्र चल रहा निरंतर
एक सफर को ठौर मिला
शुरुआत नयी करने को तत्पर
कहीं छूट गया, कहीं और मिला.
(एक दिव्यांग सहकर्मी की सेवा निवृति के अवसर पर )
दो वर्षों के अंतराल पर आई एक अच्छी कविता . निरंतरता बनाये रखें . - अनामिका
ReplyDeleteहर शब्द अपनी दास्ताँ बयां कर रहा है आगे कुछ कहने की गुंजाईश ही कहाँ है बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteBhaav vivhal kar diya. Bahut acchi kavita. Shalini
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