अँधेरा
अमावस की वो
काली रात थी
पर किस्मत जो
मेरे साथ थी
घेरे था मुझे
घुप्प अँधेरा
जैसे न होगा
कभी सवेरा
गहन तिमिर था
दोनों बाँहे पसारे
अनजान बहुत था
होगा सूरज ओसारे
कोठरी काजल की
ढेर सी स्याही
सजे जिन नैनों में
लगती कितनी प्यारी
रात थी अँधेरी
थोड़ी सी लम्बी
क्या न कटेगी
लगती थी दम्भी
इतने में आई
बाती की एक किरन
सिमटा था तिमिर
माथे पर न शिकन
अँधेरा जीता नहीं
पर दे गया बहुत
शाम बीती नहीं
आऊंगा लौट खुद
घबराना नहीं तुम
जाता हूँ दे हौसला
उजियारा हैं तुम्हीं में
भरना इसी से घोंसला .
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (29-10-2016) के चर्चा मंच "हर्ष का त्यौहार है दीपावली" {चर्चा अंक- 2510} पर भी होगी!
ReplyDeleteदीपावली से जुड़े पंच पर्वों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
ReplyDeletebeautiful poem. aisa laga jaise mujhe bhi andhakaar mein aasha ki kiran dikhai di.
ReplyDeleteअँधेरा को दूर करने के लिए आशाओ का छोटा सा दीप काफी होता है। अच्छी कविता।
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