Tuesday, December 15, 2015




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धूप के पीछे 


एक सर्द सुबह , गुनगुनी धूप
जाड़ों में कितनी भली लगे
छत का कोना, अखबार हाथ में
एक चाय की प्याली खूब जमे  ।

जीवन की  आपाधापी में
मैं  स्वर्ण रश्मियाँ भूल  गईं
दफ्तर जाने की भागम-भाग
बस तो नहीं मेरी छूट गईं  ।

आफिस में बस काम याद
पीछे क्या कुछ रह जाता है
धूप का वह नन्हा टुकड़ा 
मेरी राह देखता जाता है  ।

फुर्सत के कुछ लम्हों में
खिड़की पर जा बैठी मैं
छनकर आई धूप सुहानी
हौले से फिर गरमाई मैं  ।

कुछ पल बीते , कुछ क्षण बीते
सरक गई कोमल सी धूप
आया एक बादल का टुकड़ा
ले गया छिपा वह नरम धूप  ।

मैं व्याकुल उसको खोज रही
बाहर भीतर, कोई छोर
बड़ी देर में  , दिखा दूर वह
बढ़ता जा रहा क्षितिज की ओर  ।

अगले दिन फिर हुई भोर
आज अंजुरी में भर लूंगी
रखूंगी उसको लगा ह्रदय से
दूर नहीं फिर जाने दूँगी  ।

धूप कहाँ वह रुकने वाली
फिसल गई हाथों से मेरे
आगे बढ़ती जाती वह
मैं आती हूँ पीछे तेरे  ।

मखमली घास का मिला बिछौना
ठहर गई एक पल को वह
मैं जा बैठी संग उसी के
कुछ अपनी कह दूँ, चुप सुनती वह  ।

साँझ हुई , जाने को तत्पर
मन मनुहार करे, रुकने का
संभव नहीं, नियति मेरी
ले लिया वचन, कल आने का  ।              
   
  

4 comments:

  1. wha wha kya baat hai. very nice

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  2. ऐसा कमाल का लिखा है आपने कि पढ़ते समय एक बार भी ले बाधित नहीं हुआ और भाव तो सीधे मन तक पहुंचे !!

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