शैल
पहाड़ कहो या गिरि मुझको
पर मैं हूँ एक प्रहरी सजग
सीमा पर खड़ा किया मुझको
कर के सबसे अलग थलग
नदियों का उद्गम मुझसे
देती सबको जल निर्मल
कल कल कर बहता जाए
मन को भी करता शीतल
निर्भीक खड़ा रहूँ दिन रैन
जैसे सबल पिता का हाथ
मानसून से करता बात
भीगी धरा वृष्टि के साथ
देख रहा हूँ मैं सबको
पलता , बढ़ता आँगन में
पुष्प , कुसुम, तरु , पल्लव
बढ़ते जाएँ प्रागण में
पलते हैं जीव मुझमें
मेरी कंदरा , गुफाओं में
निर्भीक पनपते आश्रय में
भरता कलोल इनके जीवन में
जड़ी बूटियां हैं असंख्य
सृष्टि के अनमोल रतन
दुर्लभ और अप्राप्य जंतु
विचरते जैसे हो इनका वन
संजीवनी सा सुंदरा सेहरा
आया मैं प्रभु के भी काम
लगा कितना मुझ पर पहरा
देवासुर ने भी जाना दाम
सब कहते पाषाण हूँ मैं
मुझमें भी ह्रदय धड़कता है
सदा उपेक्षित रहता मैं
चन्दन वन यहाँ महकता है
कभी तो आओ मिलने मुझसे
पलक बिछाए पड़ा पथ पर
पथराई अँखियाँ पूछे तुमसे
क्या सृष्टि वारूँ तुझ पर !
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18 - 06 - 2015 को चर्चा मंच पर नंगी क्या नहाएगी और क्या निचोड़ेगी { चर्चा - 2010 } पर दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteसुन्दर रचना, बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करते हुए , बेहतरीन अभिब्यक्ति
ReplyDeleteकभी इधर भी पधारें
पाषाण होकर भी चंदन वन पनपाता है. बुजुर्ग सा एकाकी शैल!
ReplyDeleteअच्छी कविता। बहुत दिनों बाद लिखी हैं आप। ढेरो शुभकामनाएं।
ReplyDeleteसुंदर और सटीक बात..
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