Wednesday, July 4, 2012

घन छाये


(पावस की प्रथम बूंदों की प्रतीक्षा में )
















जेठ की तपती दुपहरी 
धरा थी शुष्क दग्ध 
मेघ आये ले सुनहरी 
पावस की बूंदे लब्ध 

संचार सा होने लगा
जी उठी जीवन मिला 
सोया हुआ पंछी जगा 
सुन पुकार कुमुद खिला

अंगार हो  रही धरती 
धैर्य थी धारण किए 
दहकती ज्वाला गिरती
अडिगता का प्रण लिए 

मुरझा गए पुष्प तरू  
मोर मैना थे उदास 
सोचती थी क्या करूँ 
जाए बुझ इसकी प्यास 

सूख गए नदी नार 
ताल तलैया गए रीत 
मछलियाँ पड़ी कगार 
गाये कौन सरस गीत 

टिमटिम उदासी का दीया  
आई ये कैसी रवानी 
हल ने मुख फेर लिया 
पगडण्डी छाई वीरानी    

घन छाये घनघोर बरस 
तृप्ति का उपहार लिए 
इन्द्रधनुष दे जाओ दरस 
रंगों का मनुहार लिए 

13 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना .... फुहार सी बरसाती हुई

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  2. उत्कृष्ट रचना ...अब तो बस बरस ही जाएँ मेघा ....

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  3. ......बरसाती फुहार जैसी रचना

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  4. जीवन भर लाओ, बरस जाओ।

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  5. Behad umang bharee rachana..

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  6. BAHUT ACHCHI RACHANA
    PYASI DHARATI KO TRIPTI MIL GAI

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  7. अब तो बरस भी जाओ ....बहुत सुन्दर प्रस्तुति..

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  8. वाह ... बेहतरीन प्रस्‍तुति।

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  9. ..अब तो बस बरस ही जाएँ मेघा ....
    बहुत सुन्दर रचना...

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  10. बहुत सुन्दर .....
    किसको नहीं है इन्तेज़ार मेघों का....

    अनु

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  11. वारिश की प्रतीक्षा में सभी लगे हुए हैं. सुंदर प्रस्तुति.

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  12. बहुत खुबसूरत.....

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