(चित्र गूगल से साभार )
गतिमान है धुरी पर
परिक्रमा करनी है पूरी
प्रहर गिनती पोरों पर
कहीं दूर न हो दूरी
गर्भ में बैठे मानिक मोती
एक दूजे से बतियाते हैं
धीर धरा हमको ढोती
तभी अमूल्य कहाते हैं
दिखती कितनी शान्तमना
धधकता भीतर ज्वालामुखी
जल का अपार सैलाब बना
माथे हिमगिरि पर न दुखी
बनी सारथि सृष्टि की
सृष्टा का आधार हो तुम
वाहिनी बनी चराचर की
कंचन सी कल्पना तुम
पल पल पल्लवित जीवन
जीने की उमंग तुमसे
तुम हो कितनी पावन
धर्म कर्म परिभाषा तुमसे
देवों ने भी जन्म लिया
आँचल में छिप जाने को
ममता का मीठा भोग दिया
मठ में पूजे जाने को
आज धरा है तार तार
लहू से लहूलुहान हुई
मानवता सिसके द्वार
अपनों से ही बर्बाद हुई
आस लगाये धैर्य धारिणी
धानी चूनर खोएगी नहीं
अमन चैन की खेवन हारिणी
पृथ्वी कभी थकती नहीं .
सुन्दर पृथ्वी महिमा वर्णन
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना.....बेहतरीन अभिव्यक्ति,...
ReplyDeleteMY RESENT POST .....आगे कोई मोड नही ....
खूबसूरत रचना।
ReplyDeleteपृथ्वी की व्यथा-कथा का शाब्दिक चित्र।
ReplyDeleteअच्छी रहना
ReplyDeleteबहुत सुंदर
सच कहा है .. पृथ्वी तो अपना काम करती है ... उसके बेटे ही अब उसको व्यथित कर रहे हैं ...
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