Tuesday, December 13, 2011

घन छाये



















जेठ की तपती दुपहरी 
धरा थी शुष्क दग्ध 
मेघ आये ले सुनहरी 
पावस की बूंदे लब्ध 

संचार सा होने लगा
जी उठी जीवन मिला 
सोया हुआ पंछी जगा 
सुन पुकार कुमुद खिला

अंगार हो  रही धरती 
धैर्य थी धारण किए 
दहकती ज्वाला गिरती
अडिगता का प्रण लिए 

मुरझा गए पुष्प तरू  
मोर मैना थे उदास 
सोचती थी क्या करूँ 
जाए बुझ इसकी प्यास 

सूख गए नदी नार 
ताल तलैया गए रीत 
मछलियाँ पड़ी कगार 
गाये कौन सरस गीत 

टिमटिम उदासी का दीया  
आई ये कैसी रवानी 
हल ने मुख फेर लिया 
पगडण्डी छाई वीरानी    

घन छाये घनघोर बरस 
तृप्ति का उपहार लिए 
इन्द्रधनुष दे जाओ दरस 
रंगों का मनुहार लिए

11 comments:

  1. रंग बहारें, दुनिया प्यासी।

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  2. टिमटिम उदासी का दीया
    आई ये कैसी रवानी
    हल ने मुख फेर लिया
    पगडण्डी छाई वीरानी

    बहुत ही खूबसूरत लिखा है आपने।
    मेरे ब्लॉग पर आने के लिए तहे दिल से शुक्रिया।

    सादर

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  3. सुन्दर गीत....
    सादर बधाई..

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  4. घन छाये घनघोर बरस
    तृप्ति का उपहार लिए
    इन्द्रधनुष दे जाओ दरस
    रंगों का मनुहार लिए

    ati sundar....!!

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  5. घन छाये घनघोर बरस
    तृप्ति का उपहार लिए
    इन्द्रधनुष दे जाओ दरस
    रंगों का मनुहार लिए........सुन्दर भाव सुन्दर रचना |

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  6. सूख गए नदी नार
    ताल तलैया गए रीत
    मछलियाँ पड़ी कगार
    गाये कौन सरस गीत ...

    ऐसे हालात में मधुर गीत कोई नहीं गा सकता ... अच्छे भाव है इस रचना में ...

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  7. वाह!!! बहुत खूब लिखा है आपने

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  8. घन छाये घनघोर बरस
    तृप्ति का उपहार लिए
    इन्द्रधनुष दे जाओ दरस
    रंगों का मनुहार लिए......
    ..komal manobhaon se saji sundar prakritik manohari prastuti...

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