तीसों पहर सोच में बीते
सपना कैसे होगा साकार
किया था वादा दिन बीते
कैसे लेगा वह आकार ।
प्रयास समर्थता से बढ़कर
इष्टदेव को साथ लिए
बनूँ मैं उनका अवलंबन
ले हाथों में हाथ लिए ।
लोचन झिलमिल से भर जाए
आकाश सिमट आये आँचल में
धरा भी फूली नहीं समाये
स्फुटित हो नीलकमल मन में ।
देने को अनुपम उपहार
जैसा किसी ने दिया न हो
हर लेने को हर अवसाद
ऐसा किसी ने हरा न हो ।
होते हैं विरले तुम जैसे
औरों की ख़ुशी में जीते हैं
तजकर अपने निज सुख को
बन नीलकंठ विष पीते हैं ।
अतुल्य अनूठे अलग से हो
उपमा मैं तुम्हारी दूं किससे
विकल्प न कोई तुम्हारा हो
छवि मात्र तुम्हारी हो जिसमें ।
मन में उठाते हुए उद्वेग को बखूबी शब्द दिए हैं ...
ReplyDeleteवाह वाह ………………बहुत सुन्दर भाव संग्रह्।
ReplyDeleteबहुत ही कोमल भाव।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteमराठी कविता के सशक्त हस्ताक्षर कुसुमाग्रज से एक परिचय, राजभाषा हिन्दी पर अरुण राय की प्रस्तुति, पधारें
बहुत खूबसूरत ..अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteबेहतरीन रचना...क्या बात है...लाजवाब...
ReplyDeleteनीरज