छोटे बड़े
अनगिनत
अभावों के बीच
रहना सीख लिया था
मैंने ।
अब नहीं
खलती थी
कोई कमी
नींद भी
आ ही जाती थी
तमाम कमियों के बीच ।
अपनी हालत
पर आती थी
हंसी
जो पहले नहीं आयी कभी
खुद को
जीत लिया था
मैंने ।
अचानक
बहुत सा
अपनापन मिला तो
लगा कुबेर हो गई हूँ मैं
इतना अमोल धन
कहाँ रखूँ
कैसे सम्भालूँ
इसे ओढूं कि बिछाऊँ
मेरा आँचल
न हो जाए
तार तार
इसके बोझ से ।
जानती हूँ
मैं नहीं सुपात्र
नहीं मेरा कोई अधिकार
मन है न
बेईमान हो जाता है
हँसता है
मेरे उसूलों पर
मजाक उडाता है
मेरी नैतिकता पर
चिन्दियाँ बिखेर देता है
मेरे स्वाभिमान और
मेरी अस्मिता की ।
फिर सुनी
एक आवाज़
छोटी सी हंसी के साथ
'कभी पाया है
इतना प्यार
कभी देखी है
इतनी ख़ुशी '
लगा
तुमने दी है
मुझे भीख
अपने प्यार की
स्नेहसिक्त अभिसार की ।
रह लूंगी
तमाम अभावों के बीच
लेकिन
सोच में विकृति से साथ
नहीं है स्वीकार
मुझे
यह भीख ।
देखो
मैं फिर से
हंसने लगी हूँ ।
लेकिन
ReplyDeleteसोच में विकृति से साथ
नहीं है स्वीकार
मुझे
यह भीख
देखो
मैं फिर से
हँसे लगी हूँ ।
सही बात है स्वाभिमान के बिना भी क्या जीना। अच्छी लगी रचना। बधाई।
अचानक
ReplyDeleteबहुत सा
अपनापन मिला तो
लगा कुबेर हो गई हूँ मैं
इतना अमोल धन
कहाँ रखूँ
कैसे सम्भालूँ
इसे ओढूं कि बिछाऊँ
मेरा आँचल
न हो जाए
तार तार
इसके बोझ से ।
मनोभावों को व्यक्त करती बहुत सुन्दर रचना|
ब्रह्माण्ड
"तुमने दी है
ReplyDeleteमुझे भीख
अपने प्यार की
स्नेहसिक्त अभिसार की"
मैडम,अब आप अपने मन की गहराई में उतरने लगी हैं.आपकी यह कविता आपकी भावनाओं का दर्पण बन खड़ा है हमारे सामने .सामान गति से भाव को लेकर आगे बढाती रचना.बढाई.
भीख में तो जो चाहे मिले खुद्दारी को वह कहाँ स्वीकार्य है .आत्मस्वाभिमान ही एक कवि की पूँजी है .आत्मबल से भरी पूरी एक सुन्दर कविता .
ReplyDeleteजीवन में हँसना सीख लेना चाहिये, दुख पाने के तो सौ तरीके हैं।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव ...आत्मसम्मान के लिए भीख नहीं चाहिए होती
ReplyDeleteआत्मबल से भरी पूरी एक सुन्दर कविता .
ReplyDeleteरामपति जी(आशा है आपका नाम यही है)
ReplyDeleteबहुत गहरी अभिव्यक्ति है इसमें कोई शक नहीं। दिल की अतल गहराईयों से निकलकर आती आवाज लगती है इस कविता में।
मैं कविता को एक समीक्षक के नजरिए से भी देखता रहता हूं। इसलिए अन्यथा न लें, आपकी निम्न पंक्तियों में एक उलझाव है।
तमाम अभावों के बीच
लेकिन
सोच में विकृति से साथ
नहीं है स्वीकार
मुझे
यह भीख ।
सवाल यह है कि अगर सोच में विकृति न हो तो क्या भीख स्वीकार होगी। मेरे हिसाब से भीख अधिकार नहीं है,दया है।
विचार करियेगा।
वाह क्या लिखा है..सुंदर अभिव्यक्ति. आत्मसम्मान के आगे सब कुछ बेकार है...चाहे कितना प्रिय और मन को भाने वाला ही क्यों न हो.
ReplyDeleteरह लूंगी
ReplyDeleteतमाम अभावों के बीच
लेकिन
सोच में विकृति से साथ
नहीं है स्वीकार
मुझे
यह भीख ।
देखो
मैं फिर से
हंसने लगी हूँ
वाह बहुत सुन्दर भाव एक सुन्दर कविता
लगा
ReplyDeleteतुमने दी है
मुझे भीख...
नहीं है स्वीकार
मुझे
यह भीख ।
प्यार भी सम्मान चाहता है , भीख नहीं ..
अच्छी कविता ...!