चल पड़े हैं सफ़र पर
रास्ता कुछ है नया
आशा का दीप लिए
लक्ष्य का क्या पता ।
राहें मिलती हैं नहीं
फासले बढते गए
हर कदम कहता सहम
थम लें ठहर दो कदम ।
अच्छा होता गुजर जाते
मोड़ से अनजान हम
बावरा ये मन भागता
न जाने है क्यों वहीँ ।
आईने से पूछूं भला क्या
जवाब कुछ देता नहीं
मालूम नहीं कुछ चल रहा
क्या रास्ता है यही सही ।
पाना है आकाशकुसुम
कठिन डगर है जाना
जाने कौन मिले हमराही
सपनों को है पाना ।
काली घटाओं के मध्य से
मुझे झांकता है कोई
मदभरे अधखुले नयनों से
मुझे झांकता है कोई ।
प्रयास बढाऊं मैं जितना
वह आगे बढती जाती है
गर तुम हो साथ मेरे
थोड़ी करीब आ जाती है ।
गहन कालिमा दिखती है
पर झिलमिल दूर नहीं है
थककर बैठ गए क्या साथी
अब मंजिल दूर नहीं है ।
आशा का दीप लिए चलते रहें ...
ReplyDeleteलक्ष्य का पता नहीं ...
बस थक कर बैठना नहीं ...
सुन्दर कविता ...!
एक कदम बस एक बार में,
ReplyDeleteदेखो मंजिल दूर नहीं।
"गहन कालिमा दिखती है
ReplyDeleteपर झिलमिल दूर नहीं है
थककर बैठ गए क्या साथी
अब मंजिल दूर नहीं है ।"
बहुत अच्छी प्रस्तुति
सुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।
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