Tuesday, January 5, 2010

सर्दी

कोहरे के आलिंगन में
है भोर ने आँखे खोली
चारों ओर देख कुहासा
न निकली उसकी बोली ।

सरजू भैया मिलें कहीं
तो उनसे सब बोलो
क्यों ओढ़े हो बर्फ रजाई
अब तो आंखे खोलो ।

दर्शन दो, हे आदित्य
जन जीवन क्यों ठहराया है
जड़ चेतन सब कंपकंपा रहे
कैसा कहर बरपाया है ।

नरम धूप का वह टुकड़ा
गुनगुनी सी कितनी भली लगे
फैला दो अपना उजास
चराचर को भी गति मिले

करूँ किसको मैं नमस्कार
तुम तो बस छिपकर बैठे हो
करूँ किसको अर्ध्य अर्पण
तुम तो बस रूठे बैठे हो ।

रक्त जम गया है नस में
पल्लव भी मुरझाया है
डोर खींच ली जीवन की
निर्धन का हांड कंपाया है ।

इस मौसम में एक सहारा
बस अमृत का प्याला
लबालब जिसमें 'चाय' भरी
हो साकी, कोई पीने वाला ।

1 comment:

  1. I have recently started reading ur poems and i strongly feel that ur poems have the feel, essence and content of CHAYAVADI FORM OF HINDI POEM...
    it has love of nature, strong emotions, concern for common man, humane in nature....

    today we are missing such poems....


    see the beauty spots in poem:

    "कोहरे के आलिंगन"

    "भोर ने आँखे खोली "

    "ओढ़े हो बर्फ रजाई "

    "दर्शन दो, हे आदित्य"

    "जड़ चेतन सब कंपकंपा रहे "

    "नरम धूप का वह टुकड़ा"

    see the elements of personifciation in the poem :
    "करूँ किसको मैं नमस्कार
    तुम तो बस छिपकर बैठे हो
    करूँ किसको अर्ध्य अर्पण
    तुम तो बस रूठे बैठे हो । "

    Humane face of the poem is :
    "रक्त जम गया है नस में
    पल्लव भी मुरझाया है
    डोर खींच ली जीवन की
    निर्धन का हांड कंपाया है । "


    You are awaiting for your eternal love on tea, in these lines:

    "इस मौसम में एक सहारा
    बस अमृत का प्याला
    लबालब जिसमें 'चाय' भरी
    हो साकी, कोई पीने वाला ।"

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