कलकल करता जल शीतल
कितना पावन, कितना निर्मल
लुभाती है नदिया की धार
चराचर का जीवन आधार ।
इठलाती बलखाती लहरें
मीठा राग सुनाती हैं
नदिया का सागर में मिलना
तय है, हमें बताती हैं ।
अपलक निहारूं मैं तट पर
इसकी चांदी सी लहरों को
बाहों में आओ भर लूं
देती आमंत्रण हम सबको ।
कितने सीप, सीप में मोती
हीरे पन्ने और पुखराज
मुझमें है खामोश पड़े
संस्कृति सभ्यताओं के राज ।
नदी हूँ मैं
गति ही मेरी नियति है
रोकोगे तो खो दोगे
बहना ही मेरी प्रकृति है ।
अमृत समान यह स्वच्छ नीर
इस जैसा कोई और ना होगा
दूषित जो कर दिया मुझे
सृष्टि का फलना ना होगा ।
आ जाओ, तुमको अंक समा लूं
तन मन हो जाए धवल
इतनी शीतलता भर दूं
तेरा मन ना रहे विकल ।
है मुझको उसका इन्तजार
साहिल को मेरे संवारें जो
मिला ना ऐसा गोताखोर
मणि गरिमा को खोजे जो ।
नदी हूँ मैं
ReplyDeleteगति ही मेरी नियति है
रोकोगे तो खो दोगे
बहना ही मेरी प्रकृति है ।bhawpurn rachna
नदी हूँ मैं
ReplyDeleteगति ही मेरी नियति है
रोकोगे तो खो दोगे
बहना ही मेरी प्रकृति है ।
-बहुत उम्दा संदेश है इन पंक्तियों में..बधाई इस बेहतरीन रचना के लिए.
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! इस उम्दा रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
ReplyDeleteमेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है!