युद्ध बिगुल बज उठा
वानर सेना ने कसम उठाई
लंका को जीत हम लेंगे
सागर के उर पर करें चढाई ।
महासागर पर सेतु बाँधा
नल और नील कुशल निर्माता
पत्थर तैरेंगे जल पर
आयेंगे लखन और भ्राता ।
दिल में कुछ अनुराग लिए
थी एक गिलहरी देख रही
श्रीराम पधारेंगें इस पर
मन ही मन कुछ सोच रही ।
भाग्यशाली है पुल कितना
पदार्पण इस पर प्रभु का होगा
ऊबड़ खाबड़ से सेतु पर
कैसे उनका चलना होगा ।
शूल चुभेंगे उन पैरों में
जिनको हम शीश नवाते हैं
चरण रज मस्तक पर सजा
फूलों का अर्पण करते हैं ।
कैसे इस राह को
करूँ सुवासित , महका दूं
कंकड़ चुन लूं, पुष्प बिछा
रेशम सा मखमल कर दूं ।
आनन फानन में कूद पड़ी
वह सागर के भीतर
खुद को सारा भिगो लिया
कुछ पानी मुंह के भीतर ।
एक लोट लगाईं धूल धूसरित
झाडा खुद को पुल पर जाके
सेतु को समतल कर दूंगी
हुई प्रफुल्लित मन की करके ।
विस्मित से राम यह देख रहे
इस जीव की करुणा भक्ति को
ये देना चाहे योगदान
प्रणाम है इसकी शक्ति को ।
प्रभु निकट गिलहरी के पहुंचे
करकमलों में दी प्रेम से थाप
हाथ फिराया स्नेह से उस पर
अमिट हो गई उँगलियों की छाप ।
Wednesday, March 31, 2010
Friday, March 19, 2010
नदिया की धार
कलकल करता जल शीतल
कितना पावन, कितना निर्मल
लुभाती है नदिया की धार
चराचर का जीवन आधार ।
इठलाती बलखाती लहरें
मीठा राग सुनाती हैं
नदिया का सागर में मिलना
तय है, हमें बताती हैं ।
अपलक निहारूं मैं तट पर
इसकी चांदी सी लहरों को
बाहों में आओ भर लूं
देती आमंत्रण हम सबको ।
कितने सीप, सीप में मोती
हीरे पन्ने और पुखराज
मुझमें है खामोश पड़े
संस्कृति सभ्यताओं के राज ।
नदी हूँ मैं
गति ही मेरी नियति है
रोकोगे तो खो दोगे
बहना ही मेरी प्रकृति है ।
अमृत समान यह स्वच्छ नीर
इस जैसा कोई और ना होगा
दूषित जो कर दिया मुझे
सृष्टि का फलना ना होगा ।
आ जाओ, तुमको अंक समा लूं
तन मन हो जाए धवल
इतनी शीतलता भर दूं
तेरा मन ना रहे विकल ।
है मुझको उसका इन्तजार
साहिल को मेरे संवारें जो
मिला ना ऐसा गोताखोर
मणि गरिमा को खोजे जो ।
कितना पावन, कितना निर्मल
लुभाती है नदिया की धार
चराचर का जीवन आधार ।
इठलाती बलखाती लहरें
मीठा राग सुनाती हैं
नदिया का सागर में मिलना
तय है, हमें बताती हैं ।
अपलक निहारूं मैं तट पर
इसकी चांदी सी लहरों को
बाहों में आओ भर लूं
देती आमंत्रण हम सबको ।
कितने सीप, सीप में मोती
हीरे पन्ने और पुखराज
मुझमें है खामोश पड़े
संस्कृति सभ्यताओं के राज ।
नदी हूँ मैं
गति ही मेरी नियति है
रोकोगे तो खो दोगे
बहना ही मेरी प्रकृति है ।
अमृत समान यह स्वच्छ नीर
इस जैसा कोई और ना होगा
दूषित जो कर दिया मुझे
सृष्टि का फलना ना होगा ।
आ जाओ, तुमको अंक समा लूं
तन मन हो जाए धवल
इतनी शीतलता भर दूं
तेरा मन ना रहे विकल ।
है मुझको उसका इन्तजार
साहिल को मेरे संवारें जो
मिला ना ऐसा गोताखोर
मणि गरिमा को खोजे जो ।
द्वन्द
मरुभूमि में खड़ी अकेली
तपता सूरज है सिर पर
मृग कस्तूरी खोज रही
पानी का सोता दूरी पर ।।।
इच्छा है प्यास बुझाऊं मैं
वह आगे बढता जाता है
मैं जाऊं उसके पास पास
वह मुझको छलता जाता है ।।।
तुमको पाने का दिवास्वपन
पलकों में अपनी पाल रही
पूरी ना हो यह चाह कभी
मन ही मन मन्नत मान रही ।।।
कितना मनभावन पल होगा
जब दीया बाती मिल जायेंगे
क्या मंदिर में शंख बजेंगे
या ज्वार सुनामी के आयेंगे ।।।
रीतापन ह्रदय में भर आया
द्वन्द ये कैसा मन पर छाया
स्वर्णिम यादें पीछे छोड़ी
ये है बिछोह या प्रीत निगोड़ी ।।।
Thursday, March 11, 2010
सृजन के बीज
अपने आँगन की क्यारी में
बीज सृजन के मैंने बोये
गर्भ गृह में समा गया क्या
सोच सोच कर मन रोये ।
एक सुबह देखा मैंने
पाषाण धरा को चीर
बाती सा एक अंकुर
मुस्काया, हरी मेरी पीर ।
मैं रोज सींचती ममता से
था उल्लास नहीं खोया
सर सर समीर झुलाती उसको
जैसे अबोध शिशु हो सोया ।
आस थी कब पल्लवित होगा
कब आयेंगे उस पर फल
मेरे हर्ष का पार न होगा
मेरी सृजना हो जाये सफल ।
कैसा था वह सुखद प्रभात
जब कली ने आँखें खोली
दुलराती उसको देख देख
इतराई मैं, वह थी अलबेली ।
अंतर में कितने पराग लिए
इसका उसको भान ना था
साथ में थे मेरे सपने
उसे जरा अभिमान ना था ।
पुष्प खिला उपहार मिला
मेरे जीवन में आया वसंत
तितली बोले, मधुकर डोले
आम्र बौर कितनी पसंद ।
किसको दूं यह कुसुम सुगन्धित
खुशबू जिसमे रच बस जाए
डाली से कोई दूर ना हो
इच्छा, यहीं अमर हो जाए ।
बीज सृजन के मैंने बोये
गर्भ गृह में समा गया क्या
सोच सोच कर मन रोये ।
एक सुबह देखा मैंने
पाषाण धरा को चीर
बाती सा एक अंकुर
मुस्काया, हरी मेरी पीर ।
मैं रोज सींचती ममता से
था उल्लास नहीं खोया
सर सर समीर झुलाती उसको
जैसे अबोध शिशु हो सोया ।
आस थी कब पल्लवित होगा
कब आयेंगे उस पर फल
मेरे हर्ष का पार न होगा
मेरी सृजना हो जाये सफल ।
कैसा था वह सुखद प्रभात
जब कली ने आँखें खोली
दुलराती उसको देख देख
इतराई मैं, वह थी अलबेली ।
अंतर में कितने पराग लिए
इसका उसको भान ना था
साथ में थे मेरे सपने
उसे जरा अभिमान ना था ।
पुष्प खिला उपहार मिला
मेरे जीवन में आया वसंत
तितली बोले, मधुकर डोले
आम्र बौर कितनी पसंद ।
किसको दूं यह कुसुम सुगन्धित
खुशबू जिसमे रच बस जाए
डाली से कोई दूर ना हो
इच्छा, यहीं अमर हो जाए ।
Tuesday, March 9, 2010
सबसे न्यारा दोस्त
रश्क हो चला हमें भाग्य से
सखा जो ऐसा दिया है लाकर
भर दी जिसने झोली मेरी
नीलगगन से जुगनू लाकर ।
दोस्त मेरा है सबसे प्यारा
कितना सुन्दर, कितना न्यारा
अपनाने को आतुर अश्रुधार
सौप चुके जीवन आधार ।
लगते नहीं इस धरा के तुम
देवो सी बाते करते हो
पलक पालकी बिठलाकर
कितना इतराया करते हो ।
न देखें तुम्हे तो हो न सवेरा
सूना रह जाये मन का बसेरा
भर देते चेहरे पर उजास
मुस्कान तेरी जीवन प्रकाश ।
हर्षित हो, गरिमा का
तुमने भान रखा
राहों में कलियाँ बिखराकर
तुमने मेरा मान रखा ।
नैनों के मोती चुनने को,
जो तुमने फलक पसार दिया
मैं वारी जाऊं उस पल पर,
जिसने इतना अधिकार दिया ।
मेरे सपनों के साथी तुम
वादा है उम्र लुटाने का
आओ , ख्वाबों में रंग भरें
वक्त नहीं कुछ सुनने और सुनाने का .
सखा जो ऐसा दिया है लाकर
भर दी जिसने झोली मेरी
नीलगगन से जुगनू लाकर ।
दोस्त मेरा है सबसे प्यारा
कितना सुन्दर, कितना न्यारा
अपनाने को आतुर अश्रुधार
सौप चुके जीवन आधार ।
लगते नहीं इस धरा के तुम
देवो सी बाते करते हो
पलक पालकी बिठलाकर
कितना इतराया करते हो ।
न देखें तुम्हे तो हो न सवेरा
सूना रह जाये मन का बसेरा
भर देते चेहरे पर उजास
मुस्कान तेरी जीवन प्रकाश ।
हर्षित हो, गरिमा का
तुमने भान रखा
राहों में कलियाँ बिखराकर
तुमने मेरा मान रखा ।
नैनों के मोती चुनने को,
जो तुमने फलक पसार दिया
मैं वारी जाऊं उस पल पर,
जिसने इतना अधिकार दिया ।
मेरे सपनों के साथी तुम
वादा है उम्र लुटाने का
आओ , ख्वाबों में रंग भरें
वक्त नहीं कुछ सुनने और सुनाने का .
Saturday, March 6, 2010
प्रभु बसे मन माहीं
कान्हा की रुकमन ना थी
राधा जैसी ताब कहाँ
धन्य कहूँ मैं अपने को
यदि मीरा जैसी भी बात यहाँ ।
अपने गिरधर के रंग में
रंग जाऊ यदि मीरा जैसी
कोई रंग ना दूजा चढ़ने पाए
कृष्ण दीवानी मीरा जैसी ।
रोम रोम में पगे कन्हैया
ह्रदय बसे हैं रास रचैया
नाम पर उनके सब सुख छोड़ा
एक चितचोर से नाता जोड़ा ।
अब तो बस एक आस बची है
दर्शन कब देंगे तारणहार
स्वपन में आकर, झलक दिखाकर
कहाँ गए वो पालनहार ।
झीनी झीनी सी प्रेम चदरिया
मीरा ने अंग डारी
बंसीधर को घर- वन ढूंढे
प्रियवर बसे मन माहीं ।
राधा जैसी ताब कहाँ
धन्य कहूँ मैं अपने को
यदि मीरा जैसी भी बात यहाँ ।
अपने गिरधर के रंग में
रंग जाऊ यदि मीरा जैसी
कोई रंग ना दूजा चढ़ने पाए
कृष्ण दीवानी मीरा जैसी ।
रोम रोम में पगे कन्हैया
ह्रदय बसे हैं रास रचैया
नाम पर उनके सब सुख छोड़ा
एक चितचोर से नाता जोड़ा ।
अब तो बस एक आस बची है
दर्शन कब देंगे तारणहार
स्वपन में आकर, झलक दिखाकर
कहाँ गए वो पालनहार ।
झीनी झीनी सी प्रेम चदरिया
मीरा ने अंग डारी
बंसीधर को घर- वन ढूंढे
प्रियवर बसे मन माहीं ।